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त्रियोंग से अन्न के पकवाने आदि की अनुमोदना में प्रवर्तते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । ११. निर्दोष आहार प्रतिदिन कर लेना अच्छा है परन्तु मासोपवास के पारणे के दिन भी सदोष पाहार लेना अच्छा नहीं। १२. पुनः आचार्य श्री ने बाह्य एवं अभ्यन्तर जुगुप्सा का वर्णन किया । १३. जहां रागद्वेष उत्पन्न हो, व्रतों का भंग हो, ध्यान-अध्ययनादि में विघ्न उपस्थित ऐसे क्षेत्रों को मुनियों को छोड़ देना चाहिये । १४. मातम की हानि हो, दीहालो काले तिला लोगों का निवास न हो। १५. जहां स्त्री राज्य करती हो ऐसे क्षेत्रों में मुनि को कभी नहीं रहना चाहिथे । १६. मुनि को कायोत्सर्ग स्वाध्याय प्रादि के लिये भी प्रायिका के आश्रम में एक क्षण भी नहीं ठहरना चाहिये क्योंकि स्त्रियों के संसर्ग से उभय प्रकार की जुगुप्सा प्रकट होती है । १७. जो मुनि नोच पुरुषों की संगति करता है वह क्रोधादि भनेक दूषणों से युक्त हो जाता है । १६. ऐसे मुनि की सदाचारी कभी संगति नहीं करें। १९. पहले आचार्य का शिष्य न बन करके आचार्य पद धारण करने के लिये घूमला है उसे धोंघाचार्य दंभाचारी समझना चाहिये। २०. मुनि को मैं बहुत दिनों का दीक्षित हूं ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिये। २१. ध्यान अध्ययन में लीन मुनि संवर रूपी जहाज पर चढ़कर शीघ्र संसार से पार हो जाते हैं।
२२. पुनः प्राचार्य श्री ने निद्रा को राक्षसी के समान अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाली बताकर उसे जीतने की प्रेरणा दी है। २३. मुनिराज समुद्र के समान कषाय, इन्द्रिय सुखों को फेंक (दूर ) करके एकामचित्त से प्रात्मा का ध्यान करते हैं । २४. कषायों के अभाव को ही चारित्र कहते हैं। २५. जो मुनि कषायों के वशीभूत है वह असंयमी, कुमार्गगामी और मिथ्यादृष्टि है। २६. गण मैं शिष्यादिक का मोह उत्पन्न हो जाता है अतः समाधि के समय मुनि को अपने गण में नहीं रहना चाहिये। २७. मुनिराज को अनन्त संसार को बढ़ाने वाली चार-चार अंगुल प्रमाण जिह्वा इन्द्रिय एवं कामेन्द्रिय को वैराग्य रूपी मन्त्र से कील देना चाहिये। स्त्रियों का संसर्ग चारित्र से भ्रष्ट करने वाला है । अत: मुनिराज को जिस स्त्री के हाथ-पैर कटे हुए हो और नाक, कान भी कटे हुये हो ऐसो स्त्री यदि सौ वर्ष को भी हो तो भी यतियों को दूर से ही त्याग कर देना चाहिये 1 २८. पुनः दस ब्रह्मषयं को घात करने के कारणों का निर्देश किया है।
दसवां अधिकार
१. आचार्य श्री ने १८७ श्लोकों में प्रत्याख्यान संस्तर नामक अधिकार का वर्णन किया। मंगलाचरण करके आचार्य श्री न भिक्षादि पड़े जाने पर सन्यास ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। २. सन्यास ग्रहण करने वाले को प्रथम क्षमा मांगनी चाहिये एवं संबको क्षमा कर देना चाहिये । ३. स्वगरण का त्याग करके परगण में प्रवेश करना चाहिये । ४ पुनः अपने दोषों की आलोचना करके समाधि के लिये निर्यापक आचार्य बनाना चाहिये । ५. पुनः निर्यापकाचार्य आगमानुसार मृत्यु के