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(१८)
मेघमाहोदये
पुनः प्रकारान्तरेण कपूरचक्रस्य द्वितीयपाठःदिशश्चतस्रो विदिशश्चके न्यस्य तदन्तरे। पुरी उज्जयिनी स्थाप्या मालवस्था पुरातनी ॥ ८६ ।। भूमध्यरेखाविश्रान्ता लकातो मेरुगामिनी । तेन श्रीऋषभेणेयं पुरीमध्ये निवेशिता ।। ८७॥ अन्येयुरस्या भूपेन विक्रमार्केण चिन्तितम् । ज्ञायते सुखदुःखानि कथञ्चित् पार्श्ववासिनाम् ॥ ८८ । परं न दूरदेशानां सुखदुःखादि वेद्यते ।। अत्रान्तरे मनोऽभिक्षः कपूरः प्राह भूपतिम् ।। ८९॥ कर्पूरचक्रं मम वर्तते पुरा, तस्य प्रमाणेन समस्तभूतले । शेयानि वाताम्बुदराजविग्रह-प्रजासुखावृष्टिभयाभयानि च।।६। विक्रम उवाच-किं तच्चक्रं कृतं केन कथं तस्मानिवेद्यते । सुखदुःखे अवृष्टिर्वा वृष्टिलॊके शुभाशुभम् ॥ ९१ ॥
चक्र में चार दिशा और चार विदिशा रखकर बीच में मालवा देश में आई हुई प्राचीन उज्जयिनी नगरी को स्थापन करना ॥८६॥ वह नगरी लंकासे मेरु तक गई हुई भूमध्यरेखा के प्रदेश में है, तथा श्रीकृषभदेव का निवास (मंदिर) से युक्त है ॥ ८७ ॥ एक दिन विक्रमादित्य राजा ने विचार किया कि ममीप रहे हुए देशों का शुभाशुभ सुख दुःख कुछ जान सकते हैं ॥ ८८ ॥ परंतु दूर रहे हुए देशों का सुख दुःख नहीं जान सकते, इस अवसर पर मन के अभिप्राय को जाननेवाला कर्पूर नाम का देवज्ञ राजा को कहने लगा ।। ८६ II कि मेरे पास कर्पूर चक्र है, उसके प्रमाण से समस्त भूतल पर वायु, वर्षा, राजविग्रह, प्रजाओं का सुख दुःख, अवृष्टि, भय और निर्भय इत्यादि सब जान सकते हैं ।। ६० ॥राजा बोलावह चक्र क्या है ? किसने बनाया ? और उससे जगत में सुख दुःख, अवृष्टि, वृष्टि, और सब शुभाशुभ कैसे जाने जाते हैं ? ॥ ६१ ॥
"Aho Shrutgyanam"