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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
हैं- मूल के उच्छेद से ही संसार का उच्छेद सम्भव है। दिगम्बर-परम्परा में भी यह संस्कार जन्म के बाद प्रथम बार केशों का अपनयन करने के उद्देश्य से किया जाता है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारने के उद्देश्य से किया जाता है। इसके अतिरिक्त पं. श्रीराम शर्मा के अनुसार पूर्वजन्म के मस्तिष्क में बैठे कुसंस्कारों के कुप्रभावों को समाप्त करना भी इस संस्कार का उद्देश्य है। १२. उपनयन-संस्कार
उपनयन-संस्कार किए जाने का मुख्य प्रयोजन वर्णत्व की प्राप्ति करना है, क्योंकि उपनयन-संस्कार से ही व्यक्ति वर्णत्व को प्राप्त करता है। जैसा कि आचारदिनकर में भी कहा गया है- “उपनयन-संस्कार द्वारा व्यक्ति वर्णत्व को प्राप्त करता है।" इस संस्कार के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनका भी कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्य है, जैसे- पुरुषों को जो सूत्र धारण करने का निर्देश दिया गया है, उसका प्रयोजन ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-रूपी मोक्षमार्ग को सूत्ररूप में धारण करना है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार विद्याध्ययन एवं द्विजत्व की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार को किए जाने का प्रयोजन विद्याध्ययन-काल में बालक को ब्रह्मचर्य का पालन करवाना है। पं० आशाधरजी के अनुसार जिसका उपनयन-संस्कार हुआ है, वह द्विज, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य सम्यक्त्व से युक्त होकर जीवनपर्यन्त के लिए मद्यपान आदि महापापों का त्याग करता है तथा वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा उपदिष्ट उपासकाध्ययन, आदि के श्रवण करने का अधिकारी होता है। इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन बालक को शास्त्र-श्रवण एवं अध्ययन का अधिकारी बनाना भी है।
१३. विद्यारम्भ-संस्कार
_ 'विद्यारम्भ', जैसा कि इस संस्कार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है, इस संस्कार के माध्यम से बालक को प्रथम बार अध्ययन करने हेतु बैठाया जाता है। जिस प्रकार व्यक्ति का शरीर-सामर्थ्य आहार के आधार पर बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मन का सामर्थ्य विद्या के माध्यम से विकसित होता है, अतः बालक को
७ षोडश संस्कार विवेचन, पं.श्रीराम शर्मा, पृ.-७.१०, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५ ६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ४६ षोडश संस्कार विवेचन, पं.श्रीराम शर्मा, पृ.-६.२, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५
सागारधर्मामृत, अनु.- सुपार्श्वमतिजी, अध्याय-२, पृ.-७२-७३, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद्, तृतीय संस्करण १६२२.
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