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वर्धमानसरिकत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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सामान्यतया केवल उपवास द्वारा देहत्याग का समर्थन मिलता है। जैन-परम्परा शस्त्र आदि से होने वाली तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होने वाली क्रमिक मृत्यु को ही अधिक प्रशस्त मानती है।
जन्म और मृत्यु जीवनरूपी श्रृंखला के दो छोर हैं, जिस व्यक्ति का जन्म होता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है, किन्तु फिर भी जीव जीवन को शाश्वत मानकर आनंद मानता है और जब मौत उसके सामने आ खड़ी होती है, तो वह उससे भयासक्त होकर इधर-उधर दौड़ने लगता है और जीने की आकांक्षा करता है। जीवन में संयोग का सुख है, इस कारण जीना अच्छा लगता है, जबकि मृत्यु में वियोग का दुःख है, अतः वह अच्छी नहीं लगती है, फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता या अपरिहार्यता से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। मृत्यु अवश्यंभावी है। जैसा कि आचारांगसूत्र में कहा गया है कि मृत्यु अनागम नहीं है। व्यक्ति कितना भी प्रयत्न करे, तो भी वह मृत्यु के चक्र से छूट नहीं सकता। जब व्यक्ति को मृत्यु को प्राप्त करना ही है, तो क्यों न वह अपनी आराधना इस प्रकार से करे, जिससे अंतिम समय में भी उसकी आत्मसमाधि बनी रहे, आत्मसमाधि के बिना जीव कर्मों का क्षय नहीं कर सकता, अतः अंतिम समय में भी मुनि अपनी साधना-आराधना द्वारा कर्मों का क्षय कर सके, इसी उद्देश्य से यह विधि की जाती है। संस्कार का कर्ता
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार आचार्य, उपाध्याय वाचनाचार्य या निर्यापक मुनि किसी के भी द्वारा करवाया जा सकता है। १६ दिगम्बर-परम्परा में निर्यापकाचार्य द्वारा यह संस्कार कराए जाने के उल्लेख मिलते है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रवेदित की है:अंतिमसंलेखना-विधि
__ वर्धमानसूरि ने इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम बारह वर्ष की उत्कृष्ट संलेखना-विधि का निरूपण किया है। सर्वप्रथम इसके अन्तर्गत इन बारह वर्षों में साधक को किस-किस प्रकार के तप करने चाहिए-इसका उल्लेख किया गया है। तदनन्तर यह बताया गया है कि संलेखना की साधना के इन बारह वर्षों के मध्य भी यदि साधु मृत्यु को प्राप्त कर लेता है, तो उसमें कोई दोष नहीं है। वह
६*आचारांगसूत्र, आचार्य श्री आत्मारामजी जैन, सू.सं.-१/४/२/१३४, प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, लुधियाना
१९६३. {*आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ.-१३६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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