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७६६ इसके बाद वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में वर्णित ६६ विधियों को तीन विभागों- (१) केवलीप्ररूपित तप ( २ ) गीतार्थ मुनिवरों द्वारा प्रज्ञप्त तप एवं ( ३ ) ऐहिकफल की प्राप्ति हेतु किए जाने वाले तप में विभक्त करके कौन से तप साधु-साध्वियों द्वारा किए जाने चाहिए एवं कौन से तप श्रावक-श्राविकाओं द्वारा किए जाने चाहिए- इसका उल्लेख किया है। इसके साथ ही वहाँ तपवाही के लक्षणों का भी निरूपण किया गया है। दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में हमें इस प्रकार के उल्लेख देखने को नहीं मिले।
तप करते समय बीच में यदि पर्वतिथि का तप आता हो, तो उस बड़े तप को न करके उस पर्वतिथि के तप को करना चाहिए या पूर्व से आराधित उस बड़े तप को करना चाहिए? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि एक तप के मध्य में यदि दूसरा तप भी करणीय हो, तो ऐसी स्थिति में जो तप बड़ा हो, वही करना चाहिए।' ७६७ यहाँ कौनसे तप से कौनसा तप बड़ा है, इसका उल्लेख भी वर्धमानसूरि ने प्रसंगानुसार किया है। अनाभोगादि कारणों से यदि तप का भंग हो जाए, तो उसकी आलोचना कैसे करें तथा तिथि की मुख्यता वाले तप में कौनसी तिथि को तप करें? इसका भी हमें वहाँ विस्तृत उल्लेख मिलता है। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में हमें इन तपों के विधि-विधान के विषय में कोई जानकारी नही मिलती, किन्तु अनेक सन्दर्भों में वहाँ भी तप की विधि प्रतिपादित है । तिथि से सम्बन्धित तपों में से भी कुछ तपों के उल्लेख मिलते हैं। वैदिक-परम्परा में हमें तिथि के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख अवश्य मिलते हैं, किन्तु वहाँ भी वैदिक-विद्वानों में इस सम्बन्ध में परस्पर मतभेद देखा जाता है। विस्तारभय से वह सभी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है।
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
तत्पश्चात् वर्धमानसूरि ने तप से पूर्व क्या-क्या किया जाना चाहिए तथा तप का उद्यापन किस प्रकार से किया जाना चाहिए और उद्यापन का क्या महत्व है ? इसका उल्लेख किया है। दिगम्बर - परम्परा में हमें तप प्रारम्भ करने से पूर्व जिनेश्वर परमात्मा की अष्ट प्रकारी पूजा, पौष्टिक - कर्म, साधु-साध्वियों को दान देने का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में तपों के उद्यापन करने सम्बन्धी उल्लेख अवश्य मिलते हैं।
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७६६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- उनचालिसवाँ, पृ.- ३३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-उनचालिसवाँ, पृ. ३३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२.
१६२२.
७६८ क्रियाकोष, अनु.- पं. पन्नालाल जैन, पृ. २०-२१, मनुभाई मोदी, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बोरिया,
प्रथम संस्करण : १६८५.
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