Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 380
________________ 376 साध्वी मोक्षरत्ना श्री है। इस तरह पांचों इन्द्रियों के जय के लिए पांच अवली करने से पच्चीस दिन में यह तप पूरा होता है। इस तप के उद्यापन में जिनेश्वर परमात्मा के समक्ष पच्चीस-पच्चीस फल, नैवेद्य आदि रखने चाहिए। इसके साथ ही मूलग्रन्थ में इस तप से सम्बन्धित कोष्टक भी दिया गया है। इसी प्रकार अन्य सभी तपों, यथाकषायजयतप, योगशुद्धितप, धर्मचक्रतप, अष्टाह्निकातपद्वय, कर्मसूदनतप, कल्याणतप, ज्ञानदर्शनचारित्रतप, चांद्रायणतप, वर्धमानतप, परमभूषणतप, जिनदीक्षा-ज्ञान-निर्वाणतप, अनोदरिकातप, संलेखनातप, सर्वसंख्या महावीरतप, कनकावलीतप, रत्नावलीतप, मुक्तावलीतप, लघु एवं बृहद सिंह निष्क्रीडिततप, भद्रतप, महाभद्रतप, भद्रोत्तरतप, सर्वतोभद्रतप, गुणरत्न संवत्सरतप, ग्यारह अंगतप, संवत्सरतप, नंदीश्वरतप, पुंडरीकतप, माणिक्य प्रस्तारिकातप, पदमोत्तरतप, समवसरणतप, वीरगणधरतप, अशोकवृक्षतप, एक सौ सत्तर जिनतप, नवकारतप, चौदह पूर्वतप, चतुर्दशीतप, एकावलीतप, दशविध यतिधर्मतप, पंचपरमेष्ठीतप, लघुपंचमीतप, बृहत्पंचमीतप, चतुर्विध संघतप, घनतप, महाघनतप, वर्गतप, श्रेणीतप, पाँच मेरूतप, बत्तीस कल्याणकतप, च्यवनतप, जन्मतप, सूर्यायणतप, लोकनालीतप, कल्याणक अष्टाह्नकतप, आयंबिल वर्धमानतप, माघमालातप, महावीरतप, लक्ष प्रतिपदतप, सर्वांगसुन्दरतप, निरूज शिखतप, सौभाग्यकल्पवृक्षतप, दमयंतीतप, आयतिजनकतप, अक्षयनिधितप, मुकुटसप्तमीतप, अम्बातप, श्रुतदेवीतप, रोहिणीतप, मातृतप, सर्वसुखसंपत्तितप, अष्टापदपावडीतप, मोक्षदण्डतप, अदुःखदर्शी तपद्वय, गौतमपडघातप, निर्वाणदीपतप, अमृताष्टमीतप, अखण्डदशमीतप, परत्रपालीतप, सोपानतप, कर्मचतुर्थतप, नवकारतप (छोटा) अविधवा दशमीतप, बृहद्नंद्यावर्त तप एवं लघुनंद्यावर्त्त की विधि का भी उल्लेख मूलग्रन्थ में किया गया है, किन्तु स्थानाभाव के कारण हम उनका उल्लेख नहीं कर रहे है। कौनसा तप आगाढ़ या अनागाढ़ है तथा कौन-कौन से तप साधु के द्वारा एवं कौनसे तप श्रावक द्वारा करणीय है- इसका भी वहाँ उल्लेख हुआ है। अन्त में साधुओं के तप का उद्यापन भी करने का निर्देश दिया गया है और कहा गया है कि जिन तपों में उद्यापन क्रिया होती है उन तपों को साधुओं एवं श्रावकों को एक साथ करना चाहिए, ताकि साधुओं के तप का उद्यापन भी श्रावक अपने साथ कर सकें। तुलनात्मक विवेचन श्वेताम्बर-परम्परा में हमें तप-विधान के उल्लेख अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं, यथा- अन्तकृत्दंशाग, औपपातिकसूत्र, पंचाशकप्रकरण प्रवचनसारोद्धार, विधिमार्गप्रपा, तिलकाचार्य -विरचित सामाचारी आदि। इन सभी ग्रन्थों में हमें उन-उन तपों की विधि का विस्तृत विवरण मिलता है तथा इन सब में वर्णित तपविधि एक जैसी ही है, मात्र हमें अन्तकृत्त्दशांग एवं औपपातिकसूत्र में वर्णित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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