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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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कनकावली एवं रत्नावलीतप की विधि में कुछ भेद दिखाई दिया, वह यह है किप्रवचनसारोद्धार, आचारदिनकर आदि में रत्नावली के नाम से विवेचित तपविधि को वहाँ कनकावली तप के नाम से एवं कनकावलीतप को रत्नावली तप के नाम से विवेचित किया है। मात्र इतना ही भेद हमें इन विधियों में दृष्टिगत हुआ। दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें आचारदिनकर में उल्लेखित कुछ तपविधियों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनकी तपविधि में कुछ भिन्नता है, यद्यपि नाम एक जैसे ही हैं। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित तप जैन परम्परा की तपविधियों से बहुत भिन्न है। वहाँ हमें जैन परम्परा के सदृश कोई तप देखने को नहीं मिला । हाँ, वहाँ हमें चांद्रयाण तप के रूप में यवमध्यचांद्रयाणतप एवं वज्रमध्यचांद्रयाणतप का उल्लेख अवश्य मिलता है । " उसमें भी कवल का वही परिणाम हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित है, किन्तु उस तप में वहाँ होम आदि करने का भी उल्लेख मिलता है, जो हमें जैन - परम्परा के ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलता है।
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वर्धमानसूरि ने तप - विधि का उल्लेख करते हुए तप के माहात्म्य को बताया है कि जो अत्यन्त दुःसाध्य हैं, जो दुःख - कष्टसाध्य हैं तथा जो दूरस्थ हैंवे सब वस्तुएँ तपस्या के द्वारा ही साध्य होती हैं। इसी प्रसंग में वर्धमानसूरि ने शिवकुमार एवं नंदीषेण ब्राह्मण का दृष्टांत भी दिया है, जिन्होंने तप के प्रभाव से देवों में महत्ता को प्राप्त किया। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें तप के माहात्म्य का उल्लेख मिलता है। भगवती आराधना के अनुसार निर्दोष तप से जो प्राप्त न होगा, ऐसा पदार्थ जगत् में नहीं है, अर्थात् तप से पुरुष को सर्व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है। जैसे प्रज्वलित अग्नि तृण को जलाती है, वैसे ही तपरूप अग्नि कर्मरूप तृण को जलाती है। उत्तम प्रकार से किया गया और कर्मानवरहित तप का फल -वर्णन करने में हजार जिव्हावाले शेषादि देव भी समर्थ नहीं है। वैदिक परम्परा में भी तप के माहात्म्य को स्वीकार किया गया है।
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७६३ धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-तृतीय), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-५, पृ. लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७५.
धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-चतुर्थ), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- १३, पृ. लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३.
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अन्तकृत्दशांगसूत्र सं.- ८/१/२-८/२/५, मधुकरमुनि, आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.), द्वितीय संस्करण : १६६०.
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७६५ भगवती आराधना, अनु. - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, सूत्र सं. १४६७-६८, बाल. ब्र. श्री हीरालाल, खुशालचन्द दोशी, फलटण ( वाखरीकर), प्रथम संस्करण : १६६०.
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१०८४, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
१२६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
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