Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 399
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन है। केशों के उपनयन से पूर्व जन्म के संस्कारों का उन्मूलन होता है, अतः पूर्वजन्म के अनुपयुक्त एवं अवांछनीय संस्कारों के निष्कासन एवं बालक को सही मानसिक विकास हेतु यह संस्कार अनिवार्य है। इस संस्कार से व्यक्ति सुम्दरता, पवित्रता आदि को भी प्राप्त करता है। इस प्रकार यह संस्कार भी अपने आप में उपयोगी है। उपनयन उपनयन-संस्कार भी बालक को सुसंस्कारी बनाने का एक विलक्षण उपाय है। इस संस्कार से संस्कारित बालक को गुरुकुल में वास करना होता था तथा उसे अपने सारे कार्य गुरु की आज्ञानुसार ही करने होते थे। गुरु भी शिष्य को पुत्र के समान मानकर उसे शिक्षित करते थे, किन्तु वर्तमान की शिक्षा प्रणाली इतनी दूषित हो चुकी है, कि न तो शिष्य अपने गुरु को सम्मान की दृष्टि से ही देखता है और न गुरु ही उसे सही ढंग से अध्यापन करवाते हैं। गुरु अपनी स्वार्थवृत्ति का पोषण करने के लिए शिष्यों को विद्यालय में सही ढंग से पढ़ाते नहीं है, ताकि उनको ट्यूशन के माध्यम से एक अच्छी खासी रकम मिल सके। वर्तमान की इस दूषित प्रणाली के सुधार हेतु यह संस्कार बहुत ही आवश्यक है, जिससे कि शिष्य का गुरु के प्रति एवं गुरु का शिष्य के प्रति कर्त्तव्य बुद्धि का विकास हो । विद्यारम्भ - संस्कार शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश दिलाने हेतु किया जाने वाला यह संस्कार बालक के भावी जीवन हेतु अत्यन्त उपयोगी है, किन्तु यह संस्कार निर्दिष्ट अवधि के दौरान किया जाए, तो उसका बालक के जीवन पर बहुत अच्छा असर पड़ सकता है। । सामान्यतया शिशु को पाँच वर्ष के बाद इस संस्कार से संस्कारित किया जाता था, जिससे की बालक की बुद्धि समुचित प्रकार से ज्ञान को ग्रहण कर सके, किन्तु वर्तमान में हम देखते हैं कि माता-पिता बालक को दो-ढाई साल का होते ही उसे नर्सरी स्कूलों में डाल देते हैं। जो काल उनकी बालसुलभ चेष्टाओं का होता है, उस समय वह इन सब प्रपंचों से जुड़ जाता है और जो ज्ञान उसे सहज रूप में अपने आस-पास के परिवेश एवं स्वजनों से मिलना होता है, उससे वह वंचित रह जाता है। इस प्रकार वर्तमान समय में इस अंधाधुंधी से बचने के लिए यह संस्कार आवश्यक है। Jain Education International - 395 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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