Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 403
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 399 विधि शिष्य में विनयगुण का प्रादुर्भाव करती है, अर्थात शिष्य को वाचना लेने के पूर्व वाचनादाता गुरु के प्रति आदर प्रकट करना चाहिए एवं अन्य को वाचना देने के पूर्व उनकी अनुज्ञा प्राप्त करना चाहिए। वर्तमान में हम देखते हैं कि इन विधियों के अभाव में शिष्य गुरु का समुचित आदर नहीं कर पाता है। गुरु वाचना देने के लिए बैठे कि शिष्य शीघ्रता से आकर यूँ ही बैठ जाते हैं, न तो उनकी सुखशातापृच्छा ही करते है और न ही उनके प्रति विनयभाव प्रकट करते है। विनय के बिना विद्या की प्राप्ति नहीं होती है, अतः सम्यक् प्रकार से विद्या का ग्रहण हो, इसलिए भी यह संस्कार किया जाना आवश्यक है। विनय प्रकट करने से गुरु में ज्ञान प्रदान करने की भावना होती है और विषय का सुगमता से ग्रहण होता है। वाचनानुज्ञा-विधि मुनि जीवन में वाचना अर्थात् आगमों के अध्ययन-अध्यापन का बहुत अधिक महत्व है। इस संस्कार के माध्यम से वाचना प्रदान करने के योग्य मुनि को वाचनाचार्य-पद प्रदान किया जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हुए यह संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण है। आजकल के साधक (मुनि) बहुत ही तर्क-वितर्कवादी होते हैं, अतः उन्हें समझना बहुत ही टेढ़ी खीर है। उन्हें वही मुनि सम्यक् प्रकार से समझा सकता है, जिसे आगम का ज्ञान हो, जो समझाने में कुशल हो, आदि। इन गुणों से हीन वाचनाचार्य न तो स्व का कल्याण कर सकता है, न पर का ही; अतः जिनशासन की प्रभावना हेतु तथा मुनिजनों को सम्यक् ज्ञान प्रदान करने हेतु यह संस्कार भी उपयोगी है, जिससे कि योग्य मुनि को आगम-अध्यापन की अनुमति दी जा सके अर्थात् उसे वाचनाचार्य बनाया जा सके। उपाध्यायपदस्थापन-विधि इस विधि के माध्यम से योग्य मुनि को उपाध्यायपद पर अभिसिक्त किया जाता है। उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन कराने का है, किन्तु इसके साथ ही शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी सभी व्यवस्थाओं की देख-रेख करना तथा उन्हें अनुशासित रखना भी उपाध्याय का ही दायित्व है। यह कार्य वही कर सकता है, जो स्वयं गीतार्थ हो, समयज्ञ हो, अनुशासित हो। जो स्वयं आगमों का ज्ञाता या अनुशासनप्रिय नहीं है, वह किस प्रकार से अपने अधीन शिष्यों को द्वादशांगी का ज्ञान प्रदान कर सकता है? संघ में ऐसे योग्य उपाध्याय का होना नितान्त आवश्यक है। किन्तु सामान्यतः वर्तमान में हम देखते हैं कि एक अवधि विशेष के बाद कुछ व्रत, उपवास आदि करवाकर मुनि को यह पद प्रदान कर दिया जाता है, उसमें उपाध्यायपद के योग्य गुण हैं या नहीं, इसका सम्यक् आंकलन भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422