Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 407
________________ वर्धमानसरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 403 उसका कितना भी निषेध करो, तो भी वह इधर-उधर दौड़ ही जाता है। संलेखना में उस मन को आराधना में लगाकर स्थिर किया जाता है, ताकि अन्तिम समय में मुनि का मन सांसारिक भोगों में, राग-द्वेष या कषाय में भटक न जाए, क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति जीवनभर उत्कृष्ट साधना करता है, उसका मन भी अन्तिम समय में पौद्गलिक वस्तुओं में, राग-द्वेष की वृत्ति या कषायों में भटक जाता है, जो उसके भवभ्रमण का कारण बनता है। इस प्रकार भवभ्रमण के निरोध हेतु किया जाने वाला यह संस्कार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी उपयोगी ही नहीं, वरन् आवश्यक भी है। यह समभावपूर्वक अनासक्तवृत्ति से उपस्थित मृत्यु का स्वागत करता है। यह संस्कार व्यक्ति को समभावपूर्वक मरण की कला सिखाता है। प्रतिष्ठा-विधि ___ अचेतन प्रतिमा में मंत्रादि द्वारा देवतत्त्व का प्रवेश करवाने के लिए प्रतिष्ठा-विधि निष्पन्न की जाती है। जैसे सूर्य अपनी किरणों के प्रकाश से अपने-अपने व्यवहार को सम्पादन करने वाले प्राणियों का पथ-प्रदर्शक है तथा निद्रा से जगाने वाला है, उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् भी अपने उपदेश से संसार के प्राणियों की मोहनिद्रा का नाश करने वाले हैं, उद्बोध को देने वाले हैं, हितमार्ग के दर्शक हैं; किन्तु वर्तमान समय में तो उनके प्रत्यक्ष दर्शन सम्भव नहीं है, तो फिर जीव किसको आदर्श के रूप में अपने समक्ष रखकर अपनी आत्मसाधना करे- इसका विचार करके ही विद्वज्जनों ने जिनचैत्यों में जिन-प्रतिमाओं की स्थापना कर व्यक्ति को अपनी आत्मसाधना के लिए एक सम्बल प्रस्तुत किया। विधिपूर्वक की गई प्रतिष्ठा ही साधक को सुख-शान्ति प्रदान करती है तथा जिनचैत्य के वातावरण को सुरम्य बनाती है। वर्तमान समय में तो जिनचैत्यों एवं जिन-प्रतिमाओं का निर्माण कार्य बहुत प्रगति से चल रहा है। साधक को जितनी शान्ति का अनुभव वहाँ होना चाहिए, उतनी शान्ति का आभास एवं प्रतिमा के प्रति आकर्षणभाव उत्पन्न नहीं हो पाता है। इसका कारण कहीं न कहीं कुछ कमी है, जो इस प्रकार के भावों को उत्पन्न नहीं होने देती है। प्रतिष्ठा-विधि के माध्यम से उन कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है तथा मंत्रोच्चार से प्रतिमा के प्रभाव में वृद्धि की जाती है। इस प्रकार जिनचैत्यों एवं जिन-प्रतिमाओं के प्रभाव को बढाने के लिए एवं साधकों के भक्ति-भाव को जगाने हेतु प्रतिष्ठा-विधि एक माध्यम है, जिससे जुड़कर हजारों-लाखों लोग भक्तिभावपूर्वक उच्च आत्मदशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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