Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 409
________________ वर्धमानसरिक्त आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 405 है, वस्तुतः उससे दूसरे प्राणियों की क्षुधा-वेदना शांत होती है और उनकी अन्तरात्मा से निकले शुभाषीश उसके मंगल में साधक होते हैं। प्रायश्चित्त-विधि इस विधि का मुख्य प्रयोजन प्रमादवश किए गए पापों की शुद्धि करना है। व्यक्ति के जीवन में प्रायश्चित्त का बहुत ही महत्व है। प्रायश्चित्त करने से व्यक्ति के परिणाम निर्मल बनते हैं तथा पुनः उस दुष्कृत्य करने की वृत्ति समाप्त होती है। वर्तमान में हम देश में जो अपराध की वृत्तियाँ देख रहे हैं, वह इस विधि के सम्यक् आचरण न होने के कारण ही हैं, क्योंकि व्यक्ति जब तक अपराध का प्रायश्चित्त नहीं करता है, तब तक उसके मन में उस दुष्कृत्य के प्रति घृणा का भाव नहीं आता है और व्यक्ति के मन में जब तक दुष्कृत्य के प्रति घृणा का भाव नहीं आए, तब तक उन वृत्तियों से छुटकारा पाना असंभव है, अतः व्यक्ति के मन में दुष्कृत्यों के परिहार की वृत्ति का सर्जन करने हेतु यह विधि उपयोगी ही नहीं, वरन् सर्वश्रेष्ठ भी है। प्रायश्चित्त की भावना स्वतः प्रेरित होने से अपराधों की रोकथाम में अति उपयोगी है। आवश्यक-विधि इस विधि में साधु एवं श्रावकों के लिए करणीय षडावश्यकों का निरूपण करते हुए उनकी विधि प्रज्ञप्त की गई है। इन षडावश्यकों, अर्थात् (१) सामायिक (२) चतुर्विंशतिस्तव (३)वन्दन (४) प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग एवं (६) प्रत्याख्यानका आचरण मनुष्य-जीवन में अत्यन्त आवश्यक है। सामायिक-विधि से जहाँ व्यक्ति समता की साधना करता है, वहीं चतुर्विंशतिस्तव से गुणीजनों का अनुरागी होता है। वन्दन से वह अपने आराध्य के प्रति अहोभाव तथा गुरुजनों के प्रति विनय को प्रकट करता है। प्रतिक्रमण से अपने दुष्कृत्यों की आलोचना, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान-विधि के माध्यम से व्यक्ति देह एवं पौद्गलिक वस्तुओं के प्रति ममत्ववृत्ति का त्याग करता है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण क्रिया-कलाप व्यक्ति को साधनापरक बनाते हैं, किन्तु आज हम देखते हैं कि व्यक्ति के पास इन सब चीजों के लिए समय ही नहीं है। इस सबको वे व्यर्थ समय नष्ट करना मानते हैं। ऐसी मानसिकता के कारण लोग दिन-प्रतिदिन इन प्रवृत्तियों से दूर होते जा रहे हैं तथा इनके आध्यात्मिक लाभों से वंचित होते जा रहे हैं। इसका दुष्प्रभाव आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं, वह यह कि व्यक्ति समता के अभाव में राग-द्वेष की गाँठ बाँध लेते हैं। उनके मन में न तो अपने आदर्श के प्रति अहोभाव है और न विनय। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति को गुणानुरागी बनाने, समता आदि गुणों से आप्लावित करने हेतु यह संस्कार स्वयंसिद्ध मंत्र के समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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