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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
साध्वी को इस पद पर आरूढ करना अत्यन्त आवश्यक है, जो अपने अधीनस्थ साध्वी को नियंत्रित करके उन्हें एकता के सूत्र में पिरो सके। इस प्रकार वर्तमान समय में श्रमणीसंघ की दशा को देखते हुए यह संस्कार नितांत अनिवार्य है। अहोरात्रिचर्या-विधि
इस विधि में मुनिजीवन की दिवस-रात्रि की क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। शास्त्र में कहे गए आचार का पालन तभी सम्भव है, जब व्यक्ति को उसका ज्ञान हो, क्योंकि जानकारियों के अभाव में वह अपनी क्रियाओं से परे हटता जाता है। साधु-जीवन यतना, अर्थात् सजगताप्रधान है। साधु की दिवस-रात्रि की जो चर्या है, वे अधिकांशतः आचार-नियमों के सजगतापूर्वक परिपालन हेतु ही है। वर्तमान समय में हम देखते हैं कि जानकारियों या सजगता के अभाव में साधक कभी-कभी छोटी-छोटी गलतियाँ कर बैठता है। यद्यपि उसका उद्देश्य उस प्रकार का नहीं होता है, किन्तु गलती तो गलती ही होती है, चाहे वह जानबूझकर की जाए या असावधानी की दशा में। इससे साधक कर्मबंधन से नहीं बच सकता है, अतः मुनिजीवन में कम से कम दोष लगे, इस हेतु यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। ऋतुचर्या-विधि- विभिन्न ऋतुओं में साधु का क्या आचार है, इस विषय का इसमें उल्लेख किया गया है। मुनिजीवन में प्रवेश करने के बाद इस विधि का ज्ञान होना एकदम जरूरी है, क्योंकि यह विधि मुनिजीवन में लगने वाले दोषों का न केवल ज्ञान ही करवाती है, वरन् उसके दुष्परिणामों से भी साधक को बचाती है; जैसेविहारचर्या के अनुसार मुनि को आर्यदेशों में ही विचरण करना चाहिए, निश्चित, वार, तिथि, मुहूर्त आदि देखकर विहार करना चाहिए, इत्यादि। इसका कारण स्पष्ट है कि यदि मुनि अनार्यदेश में विचरण करेगा, तो उसके मन में सदा यह भय व्याप्त रहेगा कि कोई उसे हानि नहीं पहुंचा दे। इस भय के कारण न तो वह अपनी क्रियाओं को सम्यक् प्रकार से कर पाएगा और न ही आत्मसाधना कर पाएगा, अतः मुनिजीवन में विहार चर्या, कल्पतर्पण की विधि, व्याख्यान-विधि आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। इस प्रकार इस विधि की उपयोगिता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। पुनः, इससे यह बोध होगा कि किस ऋतु में कैसी चर्या करना चाहिए। अंतिमसंलेखना-विधिः
इस विधि के माध्यम से मुनि को अन्तिम क्षण की आराधना करवाई जाती है। यद्यपि मुनि का जीवन त्यागमय होता है, किन्तु मन इतना चंचल है कि
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