Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 379
________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 375 सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं मिलता है, पर यह तो निश्चित है कि तप का वहन तो तपवाही द्वारा ही किया जाता है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की हैतप-विधि वर्धमानसरि ने इस प्रकरण में सर्वप्रथम तप का माहात्म्य बताते हुए इस सम्बन्ध में शिवकुमार का दृष्टान्त दिया है और कहा है कि जो व्यक्ति शिवकुमार की तरह गृहस्थाश्रम में रहकर भी तपस्या का आचरण करता है, वह देवसभा में भी कांति, महत्ता और स्फूर्ति को प्राप्त करता है। इसी सन्दर्भ में नंदिषेण का भी दृष्टान्त दिया गया है। तदनन्तर बारह प्रकार के तप में से छ: प्रकार के तपों का उल्लेख करते हुए उन्हें तीन भागों में विभक्त किया है, जिनमें योगोपधान आदि तपों का समूह केवली द्वारा भाषित है, कल्याणक आदि तप गीतार्थ मुनियों द्वारा भाषित है एवं रोहिणी आदि तप का समूह ऐहिक या लौकिक फल की अपेक्षा वाले तप कहे गए है। तत्पश्चात् साधु-साध्वी एवं सम्यक्त्वी श्रावक को ऐहिक फल की अपेक्षा वाले तप को करने का निषेध किया है। इसी प्रसंग में तप करने के योग्य तपवाही के लक्षणों का भी निरूपण हुआ है। तपस्या का आरम्भ कब करना चाहिए, तप करते समय बीच में यदि पर्व तिथि का तप आता हो, तो क्या करना चाहिए, अनाभोग आदि कारणों से तप का भंग होने पर क्या करना चाहिए एवं तिथि की मुख्यता वाले तप में कौनसी तिथि लेना श्रेष्ठ है- इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। तदनन्तर अनशन आदि छः प्रकार के बाह्य तपों, नवकारसी आदि प्रत्याख्यानों का उल्लेख करते हुए इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता को दर्शाया गया है। तप का प्रारम्भ करने से पूर्व वर्धमानसूरि ने जिनेश्वर परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा करने, विधिपूर्वक पौष्टिककर्म करने तथा साधु भगवंत को पुस्तक, पात्र आदि का दान देने का निर्देश दिया है। मूल ग्रन्थ में योगोद्वहन आदि तपों में नंदी की स्थापना करने तथा अन्य तपों में शक्रस्तव बोलकर आवश्यकादि की वाचना की विधि करने का निर्देश दिया है तथा इसके साथ उद्यापन की महत्ता को बताते हुए तप का उद्यापन करने का भी निर्देश दिया है। तदनन्तर ६६ तपों का नामोल्लेख करते हुए उनकी विधि का उल्लेख किया है। उपधान तप, गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमा तप, बारह यतिप्रतिमा तप एवं सिद्धान्तयोगतप (योगोद्वहनतप) की विधि का उल्लेख इसी ग्रन्थ के अन्य प्रकरणों मे किया जा चुका है, इसलिए इनके अतिरिक्त अन्य कुल ६२ प्रकार तप विधियों का उल्लेख इस ग्रन्थ में हुआ है, जैसे- पाँच इन्द्रियजय तप-पूर्वार्द्ध, एकासन, नीवि, आयंबिल और उपवास- इस प्रकार पाँच दिन क्रमशः इन पांच तपों को करने से एक इन्द्रियजय का तप होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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