Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 391
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 387 रत्नजटित सुवर्णपट्ट को बांधे, अन्य राजा, सामन्त आदि किस क्रम से तिलक करें तथा उपहार में क्या वस्तुएँ प्रदान करें, यतिगुरु अथवा गृहस्थ गुरु किस प्रकार से पौष्टिकदण्डक का पाठ बोले, राजचिह्नों की किन मंत्रों से पूजा करके उन से किस प्रकार राजा को सुशोभित करें? इसका भी उल्लेख आचारदिनकर में किया गया है। तत्पश्चात् यति गुरु अथवा गृहस्थ गुरु राजा को शिक्षा प्रदान करने से पूर्व कुछ नियम देते हैं, यथा- देव, गुरु, द्विज, कुल, ज्येष्ठ एवं साधु-संन्यासी को छोड़कर तुम अन्य किसी को नमस्कार मत करना, किसी के हाथों से छुआ हुआ आहार मत खाना, अन्य किसी के साथ भोजन भी मत करना इत्यादि। ये नियम देने के बाद गुरु किस प्रकार से नृपति को नीति-शिक्षा दें इसका उल्लेख करते हुए प्रसंगवश यहाँ पर राजचिनों का भी उल्लेख किया गया है। वैदिक-परम्पर के अग्निपुराण नामक ग्रन्थ में भी हमें उक्त क्रियाओं में से कुछ क्रियाओं का उल्लेख मिलता है, जैसे- राजा को स्नान कराना, भद्रासन पर बैठाना, शान्तिकर्म करना, राज्याभिषेक के समय गान एवं वाद्ययन्त्रों को बजाना, राजा के समक्ष पंखे एवं चामर पकड़कर खड़े रहना, राजा के भाल पर पट्ट बाँधना, एवं उस पर मुकुट रखना आदि, किन्तु इन सब प्रक्रियाओं में प्रयुक्त मंत्रों एवं क्रियाओं में आंशिक अन्तर है, जैसे- आचारदिनकर में राजा को जिनस्नात्रजल एवं सौषधियों से युक्त जल से स्नान कराने के लिए कहा गया है,८२२ जबकि अग्निपुराण में यह स्नान तिल एवं सरसों से युक्त जल से करने का उल्लेख मिलता है।२४ इस प्रकार दोनों परम्पराओं की इस विधि में कहीं-कहीं आंशिक भिन्नता दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त आचारदिनकर में अन्य पदारोपण की विधियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में हमें ये विधियाँ उपलब्ध नहीं होने से हम यहाँ उन विधियों का तुलनात्मक अध्ययन करने में असमर्थ हैं। उपसंहार किसी भी कार्य को सुचारू रूप से संचालन करने के लिए उस कार्य से सम्बन्धित अधिकारों को किसी व्यक्ति के हाथ में सौंपना आवश्यक है, क्योंकि जब तक उसे समुचित अधिकार प्रदान नहीं किए जाते हैं, तब तक वह अधिकारों १२२ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२, पृ.- ६११, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. ५२३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्चे, प्रथम संस्करण : १६२२. २२५ देखे- धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२, पृ.- ६११, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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