Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 390
________________ 386 साध्वी मोक्षरला श्री दिशाओं में निवेशित करें एवं साधिकादि पुत्र को संकलित करके गीतगानपूर्वक अभिषेक-अभ्यर्चन करें तथा योगपीठ आदि प्रदान करें। वैदिक-परम्परा में आचार्याभिषेक की हमें इतनी ही विधि मिलती है। राज्याभिषेक की विधि का उल्लेख करते हुए वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम नृपति के योग्य लक्षणों की विस्तार से चर्चा की है। वर्धमानसरि के अनुसार १८ विशुद्ध क्षत्रिय कुल में जन्मा हुआ, क्रम से राज्य का अधिकार रखने वाला, सम्पूर्ण अंगोपांग वाला, क्षमावान् दाता, धैर्यवान, बुद्धिशाली, शूरवीर, कृतज्ञ, अठारह प्रकार की विद्याओं में प्रवीण, आदि गुणों से युक्त क्षत्रिय नृपति पद के योग्य होता है। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में भी राजपद के योग्य क्षत्रिय के गुणों की विस्तृत चर्चा हुई है। याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार राजा को शक्तिमान, दयालु, दूसरों के अतीत कर्मों का जानकार, तप, ज्ञान एवं अनुभव वालों पर आश्रित, अनुशासित मन वाला, अच्छे-बुरे भाग्य में समान स्वभाव रखने वाला, आदि गुणों से युक्त होना चाहिए। कौटिल ने राजा के गुणों की सूची कई दृष्टिकोणों से उपस्थित की है। उसमें सबसे पहले ऐसे गुणों का वर्णन है, जिसके द्वारा राजा लोगों के हृदय को जीत सके, यथा-कुलीनता, धर्मपरायणता, आदि। तत्पश्चात् राजा के बुद्धि - विषयक गुण, उत्साह आदि की चर्चा की गई है। ___ क्षत्रिय के राज्याभिषेक से पूर्व सर्वप्रथम शान्तिक-पौष्टिककर्म करना चाहिए।” राज्याभिषेक किस मुहूर्त में करना चाहिए? इसका भी उल्लेख आचारदिनकर में मिलता है। शुभ मुहूर्त में पूर्वोक्त गुणों से युक्त राजपुत्र को बृहत्स्नात्रविधि के स्नात्रजल एवं सौषधि से युक्त जल से महोत्सवपूर्वक स्नान करवाकर श्वेतवस्त्र, उत्तरासंग, आभरण आदि धारण करवाएं। तत्पश्चात् सधवा एवं पुत्रवान् स्त्रियों द्वारा लाए गए, रत्नजटित सुन्दर आसन पर उसे पर्यंकासन में बैठाएं और विविध वाद्यों की ध्वनियाँ करें तथा लग्न-समय के आने पर गृहस्थ गुरु समस्त तीर्थों के जल से वेदमंत्रों के द्वारा एवं यतिगुरु सूरिमंत्र, वलयमंत्र आदि द्वारा उसे अभिसिंचित करे। यति गुरु एवं गृहस्थ गुरु किन मंत्रों से नृपति को तिलक करे, मुकुट के नीचे भाल पर किस प्रकार से तीन रेखाओं से युक्त १८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. * देखे- धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२, पृ.- ५६७, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. ८२० देखे- धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंगवामनकाणे, अध्याय-२, पृ.- ५६७, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. (२" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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