Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 385
________________ 381 वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया जाता है, उसे पदारोपण-विधि कहते हैं। पद का एक अर्थ प्राप्त करना भी है। इस अर्थ में यदि इस शब्द की व्याख्या की जाए, तो पदारोपण-विधि एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति उस पद से सम्बन्धित अधिकारों को प्राप्त करता है। वर्धमानसूरि ने इस प्रकरण में न केवल साधुओं की पदारोपण-विधि का ही उल्लेख किया है, वरन् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, महाशूद्र, कारू एवं पशुओं की पदारोपण-विधि का भी उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें साधुओं के आचार्य पदारोपण विधि का उल्लेख मिलता है, जिसकी तुलना हमने आचार्यपदस्थापन-विधि से की है। गच्छनायक आदि की पदारोपणविधि का हमें वहाँ कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में भी हमें संन्यासियों के मठाधीश, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर आदि के पदारोपण की विधि का प्रचलन तो मिलता है, किन्तु हमें तत्सम्बन्धी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुए। बाह्मण आदि वर्गों में से कुछ वर्षों की पदारोपण-विधि का उल्लेख वर्धमानसूरि ने अवश्य किया है, जिसकी हम यथा-स्थान चर्चा करेंगे। पदारोपण-विधि के अतिरिक्त इसी विधि में वर्धमानसूरि ने मुद्रा-विधि एवं नामकरण-विधि का भी उल्लेख किया है।पदारोपण-विधि का मुख्य प्रयोजन विभिन्न पदों पर योग्य व्यक्तियों को स्थापित करना है। किसी संघ या समाज की सुदृढ़ व्यवस्था के लिए एक मुख्य व्यक्ति का होना आवश्यक है, क्योंकि स्वामी के अभाव में संघ का संचालन सुचारू रूप से नहीं हो सकता है, किन्तु वह स्वामी कैसा हो, किन गुणों से युक्त हो, यह जानना भी आवश्यक है, क्योंकि योग्य स्वामी ही सभी का योगक्षेम कर सकता है। इस विधि का प्रयोजन योग्य स्वामी का चयन करके उसे पद पर अभिसिक्त करना है। गच्छाधिपति आदि की पदारोपण-विधि कब और किसकी की जानी चाहिए, इसके सम्बन्ध में आचारदिनकर में कहा गया है कि जो विशुद्ध कुल, जाति एवं चारित्र वाला हो, विधिपूर्वक जिसने चारित्र को ग्रहण किया हो, योगों का उद्वहन किया हो, आचार्य के छत्तीस गुणों से युक्त हो तथा विधिक्रम से जिसनें आचार्य पद को प्राप्त किया हो-ऐसे आचार्य को०८ आचार्य-पदोचित लग्न के आने पर ०६ गच्छनायक पद पर आरोपित करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य पदों के सम्बन्ध में भी वर्धमानसूरि ने उन पदों के योग्य गुणों एवं मुहूर्त का उल्लेख किया है। वैदिक-परम्परा में भी राज्याभिषेक आदि पदों हेतु शुभमुहूर्त आदि देखने CON आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकत, पृ.- ३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ८०८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७४, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ८०६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७४-३७५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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