Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 384
________________ 380 साध्वी मोक्षरत्ना श्री उपसंहार ____ आत्मा के परिणामों को निर्मल करने हेतु तप अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि तप के द्वारा ही व्यक्ति अपने कर्मों का क्षय करता है। तप मात्र कर्मों की निर्जरा का ही हेतु नहीं है, वरन् संवर का भी हेतु है। जैसाकि तत्वार्थसूत्र में कहा गया है कि "तपसानिर्जरा च," अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है,०५ अर्थात् तप से संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। कर्मों की निर्जरा एवं संवर किए बिना जीव अनन्तचतुष्टय को प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए ज्ञानादि अनंतचतुष्टय की प्राप्ति करने के लिए तप की आराधना करना आवश्यक है। तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है तथा आत्मा स्वर्ण के समान चमकने लगती है। राजवार्तिक०६ में भी कहा गया है कि "तपः सर्वार्थ साधनम्। तत एव ऋद्धयः संजायन्ते। तपस्विभिरध्युषितान्येव क्षेत्राणि लोके तीर्थतामुपगतानि। तद्यस्य न विद्यते स तृणाल्लघुर्लक्ष्यते। मुंचन्ति तं सर्वे गुणाः। नासौ मुंचति संसारम्," अर्थात् तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है, इससे ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों की चरणरज से पवित्रस्थान ही तीर्थ बने हैं। जो तप का आचरण नहीं करता है, वह तिनके से भी लघु है। उसे सब गुण छोड़ देते हैं तथा वह संसार से मुक्त नही होता है। इस प्रकार संसार से मुक्त होने के लिए तप एक माध्यम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी तप का जीवन में अनूठा स्थान है। टाइफाइड के विषम ज्वर के समय मानव को लंघन कराया जाता है, यह एक प्रकार का तप जैसा ही है। वह जबरन कराया जाता है, किन्तु जब उसका परिणाम सामने आता है, तो वह हमें कल्याणकारी लगने लगता है। इस प्रकार तप पारलौकिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् ऐहिक दृष्टि से भी उपयोगी है। पदारोपण विधि पदारोपण-विधि का स्वरूप - यहाँ पद शब्द का तात्पर्य है- सम्मानजनक स्थान, पदवी आदि। जिस विधि के द्वारा किसी व्यक्ति को कोई पदवी या कोई सम्मानजनक स्थान प्रदान ८०५ स्वतंत्रता के सूत्र, आचार्यकनकनंदी, सूत्र सं.- ६/३, धर्मदर्शन विज्ञान शोध प्रकाशन, निकट, दिगम्बर जैन, अतिथि भवन, बड़ौत (मेरठ), प्रथम संस्करण : १६६२. ०६ जैनेन्द्र शब्दकोश (भाग-१), जिनेन्द्रवर्णी, पृ.- ३६२, भारतीय ज्ञानपीठ, छठवाँ संस्करणः १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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