Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 383
________________ वर्थमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 379 तदनन्तर वर्धमानसूरि ने विभिन्न तपों की विधियाँ प्रज्ञप्त की हैं। आचारदिनकर में वर्णित तपविधियों में से अनेक तप के उल्लेख हमें दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों मे मिलते हैं, जैसे-८६ रत्नत्रयव्रत, अक्षयनिधिव्रत, एकावलीतप, रत्नावलीतप, कनकावलीतप, मुक्तावलीतप, मुकुटसप्तमीतप, सिंहनिष्क्रीडिततप, पंचकल्याणकतप आदि। दिगम्बर-परम्परा में वर्णित इन तपों के नामोल्लेख तो आचारदिनकर में वर्णित नामों के सदृश ही हैं, किन्तु इनकी विधियों में अन्तर भी दृष्टिगत है। कुछ विधियाँ ऐसी भी हैं, जो आचारदिनकर में वर्णित विधि की भाँति हैं, जैसे-चन्द्रायणतप (यवमध्यचान्द्रायणतप) की विधि आचारदिनकर में वर्णित यवमध्यचान्द्रायण की भाँति ही है वहाँ मात्र इतना फर्क है कि प्रारम्भ में अमावस्या के दिन उपवास किया जाता है तथा अंत में अमावस्या के दिन पारणा आता है, जबकि आचारदिनकर में अमावस्या के दिन उपवास करने का उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार कुछ तपविधियाँ ऐसी हैं, जो हमें दोनों परम्पराओं के मध्य आंशिक भेद को ही सूचित करती है, किन्तु कुछ तपविधियाँ ऐसी हैं, जो दोनों ही परम्पराओं में अलग-अलग है, जैसे-आचारदिनकर के अनुसार समवसरणतप की आराधना के लिए श्रावण कृष्णपक्ष या भाद्रपद कृष्णपक्ष एकम को तप का प्रारम्भ करके अपनी शक्ति के अनुसार सोलह दिन तक बियासना' या एकासना०२ किया जाता है। इस प्रकार यह तप चार वर्ष तक किया जाता है,०३ जबकि दिगम्बर-परम्परा में समवसरणतप की आराधना हेतु शुक्ल एवं कृष्ण-दोनों पक्षों की चतुर्दशियों के चौबीस उपवास शीलव्रतसहित किए जाते हैं।०४ दिगम्बर-परम्परानुसार यह तप मात्र एक वर्ष में ही पूरा हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा की तप-विधि में कहीं आंशिक भेद दिखाई देता है, तो कहीं अत्यधिक वैविध्य भी दृष्टिगत होता है, किन्तु कुछ में समानता भी है। ७६६ क्रियाकोष, अनु.- पं. पन्नालाल जैन, पृ.- २१, मनुभाई मोदी, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बोरिया, प्रथम संस्करण : १६८५. ८०० क्रियाकोष, अनु.- पं. पन्नालाल जैन, पृ.- २८०, मनुभाई मोदी, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बोरिया, प्रथम संस्करण : १६८५. ८० बियासना अर्थात् दिन में मात्र दो बार एक आसन में बैठकर आहार करना। ८०२ एकासना अर्थात् दिन में मात्र एक बार एक आसन में बैठकर आहार करना। आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-उनचालीसवाँ, पृ.- ३३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ८०क्रियाकोष, अनु.- पं. पन्नालाल जैन, पृ.- २५५, मनुभाई मोदी, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बोरिया, प्रथम संस्करण : १६८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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