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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
तप - विधि
तप - विधि का स्वरूप
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जिस क्रिया द्वारा शरीर का रस, रूधिर आदि सात प्रकार की धातुओं की विशुद्धि हो, अथवा कर्मसमूह की निर्जरा हो, उसे तप कहा जाता है। दशवैकालिक की जिनदासकृत चूर्णि७८४ में तप की परिभाषा देते हुए कहा गया है“तवोणाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेतित्ति बुत्तं भवइ", अर्थात् जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थियों को तपाता है, उसका नाश करता है, उसे तप कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की बृहद्वृत्ति ७८५ में भी तप की परिभाषा को विवेचित करते हुए कहा गया है- “तपति पुरोपात्तकर्माणि क्षपणेनेति तपो", अर्थात् जो पूर्व उपार्जित कर्मों को क्षीण करता है, उसे तप कहते है। इस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में तप की अनेक परिभाषाएँ दी गई है। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में तप की परिभाषा देते हुए कहा गया है- "कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः ८७८६, अर्थात् कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप कहलाता है। राजवार्तिक M में तप की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी गई है- “कर्मदहनातपः " अर्थात जो कर्म को भस्म करे, उसे तप कहते है। पं. आशाधरजी ८८ के अनुसार मन, इन्द्रियाँ और शरीर के तपने से, अर्थात् इनका सम्यक् रूप से निवारण करने से सम्यग्दर्शन आदि को प्रकट करने के लिए इच्छा के निरोध को तप कहते हैं। वैदिक परम्परा मे तप का अर्थ आत्मशोधन एवं तपस्या है। इस प्रकार तप की व्युत्पत्तिपरक अनेक परिभाषाएँ समय-समय पर विद्वानों ने दी है। वर्धमानसूरि ने कर्म के निर्जराभूत तप की विधि का इस प्रकरण में वर्णन किया है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में तप को संस्काररूप नहीं, साधनारूप माना गया है। इन दोनों परम्पराओं में हमें विविध तप सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं, जिनकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे।
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तपरत्नाकर, अनु. - चाँदमलसीपाणी, पृ. ७, अशोक कुमार गोलेछा, कपड़े के व्यापारी, सुभाष चौक, कटनी, प्रथम संस्करण : १६७६.
७८४ भिक्षुआगम शब्दकोश ( प्रथम भाग ), प्रधान सं. आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. २६५, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू प्रथम संस्करण : १६६६.
भिक्षुआगम शब्दकोश (द्वितीय भाग), प्रधान सं- आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. २६५, जैन विश्वभारती संस्थान, लांड़नू, प्रथम संस्करण : १६६६.
७८६ जैनेन्द्र शब्दकोश (भाग-२), जिनेन्द्रवर्णी, पृ. 'जैनेन्द्र शब्दकोश (भाग-२), जिनेन्द्रवर्णी, पृ.
३५८, भारतीय ज्ञानपीठ, पांचवाँ संस्करणः १६६७. ३५८, भारतीय ज्ञानपीठ, पांचवाँ संस्करणः १६६७.
अनगार धर्मामृत, अनु.- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, अध्याय ७, पृ. ४६२, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पाँचव संस्करणः १६७७.
हिन्दूधर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ. २६५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८.
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