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वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 371 ज्ञान, दर्शन, चारित्र-इन सबकी पूजा एवं आराधना करने के लिए "वंदणवत्तियाए६ “ का पाठ बोलकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। प्रायश्चित्त-विशोधन, उपद्रव-निवारण, श्रुतदेवता के आराधन एवं समस्त चतुर्निकाय देवों के आराधन हेतु “वंदणवत्तियाए६" पाठ की जगह मात्र अन्नत्थसूत्र बोलकर ही कायोत्सर्ग करें। गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना हेतु हमेशा चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करना चाहिए। इसी प्रकार प्रायश्चित्त के विशोधन आदि के लिए कितनी-कितनी बार चतुर्विंशतिस्तव या नमस्कारमंत्र का स्मरण करना चाहिए? इसका भी वर्धमानसूरि ने स्पष्टीकरण किया है कि साधक को बाहुयुगल नीचे करके दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद एवं निश्चल खड़े होकर मन से शरीर के प्रति ममत्वबुद्धि की निवृत्ति कर लेना चाहिए।७८० द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में शक्ति की अपेक्षा अनेकविध होते हैं। उन अनेक प्रकारों की चर्चा भी मूलाचार में मिलती है, किन्तु कायोत्सर्ग के समय कौनसा सूत्र बोलना चाहिए। इसका उल्लेख हमें मूलाचार में नहीं मिलता है।
अन्त में वर्धमानसूरि ने अद्धाप्रत्याख्यान के दस भेदों के प्रत्याख्यानसूत्रों का उल्लेख किया है, अर्थात् उनकी विधि (योजना) बताई है। मूलाचार में हमें प्रत्याख्यानविधि के रूप में इन सूत्रों की चर्चा नहीं मिलती है। सम्भवतः वहाँ मन की धारणा से ही इस आवश्यकविधि को सम्पन्न किया जाता होगा। यद्यपि प्रत्याख्यानशुद्धि के प्रकारों की चर्चा वहाँ अवश्य मिलती है, किन्तु नवकारसी आदि प्रत्याख्यान किन सूत्रों से करें? इसका हमें कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
इस आवश्यकविधि के अन्त में वर्धमानसूरि ने अतिव्यस्त नृप, मंत्री, श्रेष्ठी आदि हेतु भी प्रतिक्रमण-विधि का निरूपण किया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें इस प्रकार अलग से इस प्रतिक्रमण-विधि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित षडावश्यकों की विधि में काफी कुछ अन्तर है, किन्तु इन षडावश्यकों के स्वरूप के सम्बन्ध में दोनों ही परम्पराओं का मत एक समान है। श्वेताम्बर-परम्परा के अन्य ग्रन्थों, यथा- विधिमार्गप्रपा, सामाचारी, सुबोधासामाचारी
७७६ मूलाचार, सम्पादकद्वयः डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार- सातवाँ, पृ.
-३८८,भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत परिषद्, प्रथम संस्करण : १६६६. ७८° भगवती आराधना, सं.-4. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.- ३८१, बाल ब्र. श्री हीरालाल खुशालचंद दोशी,फलटण,
(बाखरीकर), प्रथम संस्करण : १६६०.
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