Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ 369 वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन ___369 भगवान् एवं गुरु के रूप में स्थापनाचार्य की स्थापना आदि करने का उल्लेख हमें मूलाचार में नहीं मिलता है। तत्पश्चात् आचारदिनकर में द्वादशावर्त्त वन्दन की विधि का उल्लेख हुआ है। साधक को वन्दन आवश्यक की विधि कब-कब करना चाहिए? इसका उल्लेख करते हुए वर्धमानसूरि ने वन्दन की विधि बताई है। द्वादशावतवन्दन के लिए सर्वप्रथम सामान्य वन्दन करें। तत्पश्चात् उत्कृष्ट चैत्यवन्दन तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन करें। तदनंतर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोएमि"- इस प्रकार कहकर पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करें। तत्पश्चात् "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं खामेमि"- इस प्रकार क्षमापना करें। पुनः द्वादशावत वन्दन करके प्रत्याख्यान करें। तत्पश्चात् आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं अन्य साधुओं को वन्दन करें। इस विधि में द्वादशावतवन्दन की विधि तीन बार क्यों की जाती है, इसके कारणों का भी वहाँ हमें उल्लेख मिलता है। मूलाचार में वन्दन की विधि इस प्रकार से बताई गई है- सर्वप्रथम जिस आचार्यादि ज्येष्ठ श्रमणों की वन्दना की जाती है, उनमें तथा वन्दनकर्ता के मध्य एक हाथ अन्तराल रखकर फिर अपने शरीरादि के स्पर्श से देव का स्पर्श या गुरु को बाधा न करते हुए कटि आदि अंगों का पिच्छिका से प्रतिलेखन करें। तब वन्दना करने की अनुमति प्राप्त करें- “मैं वन्दन करना चाहता हूँ"। उनकी स्वीकृति मिलने पर इच्छाकार पूर्वक वन्दन करना चाहिए। इस विधि के अतिरिक्त हमें वन्दन की अन्य किसी विधि या सूत्रों का उल्लेख नहीं मिलता है। __इसके बाद वर्धमानसूरि ने चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक की विधि का उल्लेख किया है। इस प्रकरण में सर्वप्रथम इस बात की जानकारी दी है कि गमनागमन का प्रतिक्रमण कहाँ-कहाँ करना चाहिए। तत्पश्चात् प्राभातिक-प्रतिक्रमण की विधि निर्दिष्ट की है- इरियावही, कुस्वप्न-विशुद्धि हेतु कायोत्सर्ग, गुरुवन्दन, अतीत का प्रतिक्रमण, शक्रस्तव, खड़े होकर सामायिकदंडक बोलना, पुनः कायोत्सर्ग करना, चतुर्विंशतिस्तव बोलना, पुनः कायोत्सर्ग करना, श्रुतस्तव बोलना, पुनः कायोत्सर्ग करना, सिद्धस्तव बोलकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना, वन्दन कर आलोचनासूत्र, संस्तारकसूत्र, वन्दन, क्षमापनावन्दन, सामायिकदण्डक, कायोत्सर्ग, चतुर्विशतिस्तव, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, वन्दन, स्तुतित्रिक, फिर उत्कृष्ट ७७२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-अड़तीसवाँ, पृ.- ३२४-३२५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ७७३ मूलाचार, सम्पादकद्वयः डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार- सातवाँ, पृ.-३६८, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत परिषद्, प्रथम संस्करण : १६६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422