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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
प्रवचनसारोद्धार में भी हमें इन षडावश्यकों में से कुछ आवश्यकों की विधियों का उल्लेख मिलता है। इन ग्रन्थों में वर्णित विधियाँ भी आचारदिनकर में वर्णित विधि के सदृश ही है, किन्तु गच्छपरम्परा में भेद होने के कारण कहीं-कहीं आंशिक भेद दिखाई देता है।
उपसंहार
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विराट विश्व के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं। आचारांगसूत्र में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है- “ सव्वे पाण पियाउआ सुहसाया दुक्ख पडिकूला", समस्त प्राणी चाहे वह चींटी हो या कुंजर (हाथी), दरिद्र मानव हो या स्वर्गाधिपति इन्द्र, सभी सुख चाहते हैं । दुःख कोई नही चाहता है, लेकिन इस सुख की प्राप्ति कैसे हो ? सुख कोई वस्तु तो नहीं? जिसे बाजार से खरीद लिया जाए। यदि ऐसा होता, तो सब धनवान् सुखी होने चाहिए। उन्हें किसी प्रकार की कोई दुःख की अनुभूति होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि उनके पास तो धन है, और वे धन से सब कुछ खरीद सकते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। सुख अपने ही भीतर से प्रकट होता है। आत्मा ही दुःख-सुख का कर्त्ता है, कोई भी परवस्तु उसे दुःखी या सुखी नही बना सकती है। इस प्रकार आत्मा में ही सुख-दुःख के बीज छिपे हुए हैं। उस सुख को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यकविधि अत्यन्त अनिवार्य है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना अनिवार्य है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन के विकास हेतु आवश्यक विधि भी जरूरी है। आगम ग्रन्थों में भी कहा गया है७८२_
“भव्वस्स मोक्खमग्गाहिलासिणो ठियगुरुवएसस्स
आईए जोग्गमिणं बालगिलाणस्स वाऽऽहारा । "
जैसे बाल और ग्लान के लिए आहार आवश्यक है, वैसे ही गुरु आज्ञा के अनुपालक और मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए आवश्यक का अनुष्ठान आवश्यक है। इस प्रकार यह विधि बहुत ही उपयोगी एवं आवश्यक है।
आचारांगसूत्र, सं.- मुनि श्री समदर्शीजी, सू.- १/६३, पृ. २३६, आचार्य श्री आत्मारामजी, जैनागम प्रकाशन समिति, लुधियाना, प्रथम संस्करण : १६६३.
७८२ भिक्षुआगम विषयकोश, प्र. सम्पादक- आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. १२६, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनू, प्रथम संस्करण: १६६६.
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