Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 374
________________ 370 साध्वी मोक्षरत्ना श्री ७७४ देववन्दन एवं शक्रस्तव बोलना- यह प्राभातिक प्रतिक्रमण की विधि है।७७७ प्राभातिक प्रतिक्रमण की संक्षिप्त विधि प्रस्तुत करके उन्होंने पुनः उसकी विस्तृत व्याख्या की है। प्रसंगवश यहाँ ग्रन्थकार ने मुनि की दिवस सम्बन्धी चार प्रहर की विभिन्न क्रियाओं का भी उल्लेख किया है। प्राभातिक-प्रतिक्रमण-विधि का उल्लेख करने के बाद वर्धमानसूरि ने क्रमशः दैवसिक, पाक्षिक एवं सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण की विधि का भी विस्तार से उल्लेख किया है। इन विधियों में थोड़ा-बहुत अन्तर भी है। स्थानाभाव के कारण हम उनकी यहाँ चर्चा नहीं कर रहे हैं, किन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि वर्धमानसूरि ने इनकी भी विधि पृथक् से आचारदिनकर में उल्लेखित की है। मूलाचार में हमें प्रतिक्रमण के ७ भेदों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु वहाँ इनके लिए पृथक् से किसी विधि का सूचन नहीं किया गया है। मूलाचार में सामान्य रूप से प्रतिक्रमण की जिस विधि का उल्लेख किया है, वह इस प्रकार है- सर्वप्रथम विनयकर्म करके शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमार्जन व नेत्र से देखभाल कर शुद्धि करें। इसके बाद ऋद्धि आदि गौरव तथा जाति आदि सभी तरह के मान छोड़कर अंजुलि जोड़कर व्रतों में हुए अतिचारों का गुरु के समक्ष निवेदन करें। आलोचनाभक्ति करते समय कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमणभक्ति करने में कायोत्सर्ग, वीरभक्ति में कायोत्सर्ग और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति में कायोत्सर्ग-प्रतिक्रमणकाल में ये चार कृतिकर्म करने का विधान है। छोटे अपराध के समय यदि गुरु समीप न हो, तब वैसी अवस्था में- 'मैं फिर ऐसा कभी नहीं करूंगा, मेरा पाप मिथ्या हो - इस प्रकार का प्रतिक्रमण करना चाहिए। मूलाचार में प्रतिक्रमण की हमें यही विधि मिलती है। यद्यपि दैवसिक, पाक्षिक, चातुमार्सिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग की संख्या कितनी होनी चाहिए? इसका उल्लेख हमें अवश्य कायोत्सर्ग आवश्यक में मिलता है। बाकी इस सम्बन्ध में और कोई सूचना हमें वहाँ उपलब्ध नहीं होती है। प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद वर्धमानसूरि ने कायोत्सर्ग आवश्यक की विधि का उल्लेख किया है। वर्धमानसूरि के अनुसार जिनचैत्य, श्रुत, तीर्थ, ७७६ ७४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- अड़तीसवाँ, पृ.- ३२५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. * मूलाचार, सम्पादकद्वयः डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार- सातवाँ, पृ.-३७३,भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत परिषद्, प्रथम संस्करण : १६६६. मूलाचार, सम्पादकद्वयः डॉ. फूलचन्द्र जैन एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार- सातवाँ, प्र.-३६२, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत परिषद्, प्रथम संस्करण : १६६६. ७७७ मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, लेखक- डॉ. फूलचन्द्र जैन, अध्याय-२, पृ.- ११६, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, प्रथम संस्करण : १६८७. o आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-अड़तीसवाँ, पृ.-३३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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