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साध्वी मोक्षरला श्री
मुनि की मृतदेह का विसर्जन करने के पश्चात् साधु-साध्वी को किस प्रकार से चैत्यवंदन करना चाहिए, वसति की शुद्धि किस प्रकार से करनी चाहिए तथा श्रावकों द्वारा क्या-क्या किया जाना चाहिए-इन सबका उल्लेख भी हमें आचारदिनकर में मिलता है। ६३२ वर्तमान में भी श्वेताम्बर परम्परा के मूर्तिपूजकसंघ में यह विधि मुनिजनों द्वारा की जाती है और मृतदेह का अग्निसंस्कार श्रावकों द्वारा किया जाता है। ज्ञातव्य है प्राचीनकाल के श्वेताम्बर और दिगम्बर-ग्रन्थों में मुनि के मृतदेह को निर्जन वन या पर्वत पर मुनियों द्वारा ही विसर्जित करने का उल्लेख है।
आचारदिनकर में यह कहा गया है कि मुनिजनों द्वारा मृतदेह का विसर्जन करने के पश्चात् शव की शेष क्रिया श्रावकों द्वारा की जाती है। इस बात का उल्लेख करते हुए अन्त में ग्रन्थकार ने लिखा है कि साधु-साध्वियों की मृत्यु होने पर सूतक, पिण्डदान, शोक आदि नहीं किया जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित अन्त्य-संस्कार की विधि तथा आचारदिनकर में वर्णित अंतिमसंलेखना-विधि में आंशिक समानता और कहीं आंशिक भिन्नता दृष्टिगत होती है। उन्होंने आचारदिनकर में प्राचीन विधि के साथ-साथ अपने समय में प्रचलित विधि से समन्वय किया है। उपसंहार
इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात इस विधि की उपयोगिता एवं आवश्यकता के सन्दर्भ में विचार करना आवश्यक है। संसार में आने के बाद प्रत्येक जीव नवीन कर्मों का बंध कर जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है, किन्तु आराधना से जीव अपने पूर्वकृत कर्मों को क्षय करके इस जन्म को सार्थक कर सकता है। जैसा कि पंचवस्तु ६२३ में कहा गया है कि-आराधक जीव अन्तिम आराधना से प्रमाद के कारण बंधे हुए ज्ञानावरणीय वगैरह अशुभ कर्मों का क्षय करके भवांतर में जाति-कुल आदि की अपेक्षा से विशुद्ध जन्म को प्राप्त करता है और उसे पुनः सम्यक् चारित्र का योग प्राप्त होता है।
६३२आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ.-१३६-१३६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२. ६३३ पंचवस्तुक, आचार्य राजशेखर सूरीश्वर, प्रकरण- संलेखनाद्वार, पृ.-६८७, अरिहंत आराधना ट्रस्ट, मुंबई,
द्वितीय आवृत्ति.
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