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साध्वी मोक्षरला श्री
उसके लिए अशुभ फल देने वाले है- अतः इस समस्या के निराकरण हेतु समस्त ग्रहों एवं नक्षत्रों की शांति की जाती है।
शांतिकविधान करने से व्यक्ति के संकटों का निवारण ही नही होता है, वरन् उससे सुख-शान्ति की प्राप्ति भी होती है। शांतिक विधान करने से व्यक्ति अपने चारों तरफ कवच का निर्माण कर लेता है, जो दैविक उपसर्गों से उसकी रक्षा करता है। मत्स्य पुराण में भी कहा गया है कि ६३ जिस प्रकार बाणों से रक्षा के लिए कवच होता है, उसी प्रकार शान्तिकर्म दैवोपघातों से रक्षा करता है। इसके अभाव में मनुष्य को भयंकर कष्ट उठाने पड़ते है, क्योंकि प्रत्येक ग्रह अपना-अपना प्रभाव बताते ही है। जैसा कि स्कन्धपुराण में भी कहा गया है कि शनि की प्रतिकूल दृष्टि के कारण सौदास को मांस खाना पड़ा, राहू के कारण नल को पृथ्वी पर घूमना पड़ा, मंगल के कारण राम को वनगमन करना पड़ा, चन्द्र के कारण हिरण्यकश्यप की मृत्यु हुई, सूर्य के कारण रावण का पतन हुआ, बृहस्पति के कारण दुर्योधन की मृत्यु हुई, बुध के कारण पाण्डवों को उनके अयोग्य कर्म करना पड़ा तथा शुक्र के कारण हिरण्याक्ष को युद्ध में मरना पड़ा। इस प्रकार ग्रहों एवं नक्षत्रों के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए शान्तिककर्म आवश्यक है। • अन्त में वर्धमानसूरि ने ग्रहों की शांति हेतु जो धातु या रत्न धारण करने का निर्देश दिया है, वह भी युक्तिसंगत ही है, क्योंकि वर्ण का भी व्यक्ति गहरा असर पड़ता है, जैसे- व्यक्ति यदि श्वेतवर्ण को देखता है, तो उसे शान्ति की अनुभूति होती है। यही नहीं, चिकित्सा प्रणाली में भी कर्ण के महत्व को स्वीकारा गया है, अतः ग्रहों की शांति हेतु उन-उन ग्रहों से सम्बन्धित रत्नों को धारण करना भी आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति के अमन-चैन हेतु शान्तिककर्म भी एक आवश्यक विधान है।
पौष्टिककर्म-विधि पौष्टिक-कर्म का स्वरूप
पौष्टिककर्म शब्द का तात्पर्य है, वृद्धि कारक कल्याण कारक, पोषण करने वाला, पुष्टिकारक, बलवर्द्धक, इत्यादि।६६४ इस प्रकार भाषा जगत में पौष्टिक शब्द के अनेक अर्थ है, किन्तु यहाँ पौष्टिक शब्द का तात्पर्य पुष्टिकारक शब्द से लिया गया है। वैदिक-परम्परा में भी पौष्टिक शब्द की व्याख्या करते हुए कहा
६६२ देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २१, पृ.- ३५६, उत्तरप्रदेश
हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. ५६ संस्कृत हिन्दीकोश, वामन शिवराम आप्टे, प्र.- ६३८, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, १६६६.
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