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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
गाथा तक चतुर्विंशति का चिन्तन एवं नमस्कारमंत्र के चिन्तन में नवपद का चिन्तन करना चाहिए।
तत्पश्चात् प्रत्याख्यान आवश्यक में प्रत्याख्यान के प्रकारों मूलगुण प्रत्याख्यान एवं उत्तरगुण प्रत्याख्यान का विवेचन हुआ है । साधुओं एवं श्रावकों के लिए मूलगुण प्रत्याख्यान एवं उत्तरगुण प्रत्याख्यान कौन-कौन से है? उनका उल्लेख करते हुए मूलग्रन्थ में सर्वउत्तरगुण प्रत्याख्यान के अनागत आदि दस भेदों का तथा उनसे सम्बन्धित प्रत्याख्यानसूत्रों, जैसे- नवकारसहित प्रत्याख्यानसूत्र, पौरुषीसूत्र, पूर्वार्द्धसूत्र, एकाशन प्रत्याख्यानसूत्र, एकस्थानसूत्र, आयम्बिलसूत्र आदि का भावार्थसहित विस्तृत विवेचन मूलग्रन्थ में हुआ है। इसी प्रकरण में प्रत्याख्यान शुद्धि के छः प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है। तदनन्तर प्रत्याख्यान के फल को बताते हुए प्रत्याख्यान के १४७ भागों (विकल्पों पर भी वहाँ विचार किया गया है।
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तत्पश्चात् इन आवश्यकों की विधि का उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम सामायिक की विधि का उल्लेख किया गया है। "मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, नमस्कारमंत्र, सामायिक का पाठ, ईर्यापथ-प्रतिक्रमण ( इरियावही), आसन की प्रतिलेखना, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान एवं गुरु- साधुओं को वंदन करना" - यह सामायिक-विधि का कथन किया गया है। इस प्रकरण के अन्त में पौषधविधि का उल्लेख हुआ है।
तदनन्तर चैत्यवंदन की विधि का उल्लेख हुआ है । चैत्यवंदन के पूर्व क्या करना चाहिए, साधुओं एवं श्रावकों को दिन में कितनी बार चैत्यवंदन करना चाहिए- इसका उल्लेख करते हुए, चैत्यवंदन की विधि के तीन प्रकारों की चर्चा की गई है। नमस्कार पाठ द्वारा जघन्य, पाँच दंडक एवं स्तुतियुगल द्वारा मध्यम, पाँच दंडक, चार स्तुति, स्तवन एवं प्रणिधानों द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है। पुनः मूलग्रन्थ में इन प्रकारों की विस्तार से चर्चा की गई है।
इसके बाद वन्दन विधि का उल्लेख हुआ है। कब-कब द्वादशावर्त्त - विधि की जानी चाहिए? इसका उल्लेख करने के बाद इसकी विधि बताई गई है। इसके अतिरिक्त मूलग्रन्थ में प्रतिक्रमण - विधि, कायोत्सर्ग - विधि एवं प्रत्याख्यान - विधि का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु विस्तारभय के कारण उनका उल्लेख हम यहाँ नहीं कर रहे हैं। इसकी विस्तृत जानकारी के लिए मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर के तृतीय भाग के अनुवाद को देखा जा सकता है। इस विधि के अन्त में नृप, मंत्री, परसेवक एवं बहुव्यवसायी आदि की आवश्यक - विधि का भी उल्लेख हुआ है। अन्त में यह भी बताया गया है कि यदि कभी किसी प्रज्ञावान् को सामायिक एवं प्रत्याख्यानदण्डक का मुख्य पाठ न आता हो तो उसे मन से ग्रहण करे। तदनन्तर
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