________________
366
साध्वी मोक्षरला श्री किन्तु वन्दन भी स्वयं एक नाम है- इस अपेक्षा से वहाँ भी वन्दन के पाँच प्रकारों का उल्लेख हुआ है- ऐसा हम मान सकते है। इसी प्रकार हमें वहाँ वन्दन के अधिकारी, वन्दन के अनाधिकारी, वन्दन के पच्चीस आवश्यकों में से कुछ आवश्यक, वन्दन के बत्तीस दोष आदि के उल्लेख भी मिलते हैं, किन्तु इस आवश्यक में किन-किन सूत्रों को समाविष्ट किया गया है, इसका उल्लेख हमें दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिला।
प्रतिक्रमण आवश्यक में वर्धमानसूरि ने ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण अतिचार, आलोचना, क्षामणा एवं प्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्रों का उल्लेख किया है। इसके अन्तर्गत उन्होंने श्रावक एवं श्रमण के प्रतिक्रमण सम्बन्धी सभी सूत्रों, यथाइरियावहीसूत्र, तस्सउत्तरीसूत्र, देवसिक आलोयणासूत्र, श्रमण एवं श्रावक सम्बन्धित आलोचनासूत्र, गुरुक्षामणासूत्र, संघ आदि से क्षमापना करने का सूत्र, पाक्षिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी क्षामणासूत्र, श्रमणसूत्र, श्रावकसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि सूत्रों का उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा में प्रतिक्रमण आवश्यक में किन-किन सूत्रों को समाविष्ट किया गया है, उनके प्रतिक्रमणसूत्र की पुस्तक के अनुपलब्ध होने से इसकी तुलना हम नहीं कर पाए है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में भी प्रतिक्रमण का तात्पर्य पापों से पीछे हटना ही है, किन्तु ये क्रिया किन सूत्रों के माध्यम से की जाए, इसका हमें मूलाचार में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भावना है कि प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी जैसी वहाँ प्रतिक्रमण की पुस्तकें रही होंगी।
कायोत्सर्ग आवश्यक का स्वरूप बताते हुए वर्धमानसूरि ने कायोत्सर्ग आवश्यक में सन्निहित सूत्रों का उल्लेख किया है। वर्धमानसूरि के अनुसार काया की गतिविधियों को संयमित करना और काया के प्रति ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।०६१ दिगम्बर-परम्परा में भी कायोत्सर्ग का अभिप्राय परिमितकाल हेतु शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करना ही है, किन्तु वर्धमानसूरि ने इस आवश्यक के प्रारम्भ में जिस अन्नत्थसूत्र का उल्लेख किया है, उसका उल्लेख हमें मूलाचार ग्रन्थ में देखने को नहीं मिला। आचारदिनकर में कायोत्सर्ग के उन्नीस दोषों का उल्लेख मिलता है, किन्तु मूलाचार में बत्तीस दोषों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि आचारदिनकर में वर्णित उन १६ दोषों का उल्लेख मूलाचार में भी
" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- अड़तीसवाँ, पृ.- ३११, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : ७६२ मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, लेखक- डॉ. फूलचन्द्र जैन, अध्याय-२, पृ.-१२६, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध
संस्थान, प्रथम संस्करण : १६८७.
१६२२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org