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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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शाखाओं की अपनी विशेषता है। आचारदिनकर में वर्णित इस विधि का मूलाधार ग्रन्थ आवश्यकसूत्र है। वैदिक-परम्परा में हमें इस प्रकार की आवश्यक-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है।
आवश्यक-विधि क्यों की जानी चाहिए? इस विधि के करने का क्या प्रयोजन है? इसके सम्बन्ध में वर्धमानसूरि कहते हैं कि दिवस, रात्रि, पक्ष, मास एवं वर्ष भर के पापों की विशुद्धि के लिए सम्मिलित रूप से जो षडावश्यक किए जाते हैं, वे आवश्यक क्रियाएँ कर्मों के घात के तथा शुभध्यान की प्राप्ति के हेतु की जाती है। इस प्रकार इस विधि का मुख्य प्रयोजन जीव को अष्टकर्मों से मुक्त कर शुक्ल ध्यान में स्थित करना है। इसके साथ ही श्रावक एवं साधु अपने आचरण के प्रति सजग रहे, इसी प्रयोजन से यह क्रिया-विधि यहाँ प्रज्ञप्त की गई
है।
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं को यह विधि प्रतिदिन प्रातः एवं संध्या के समय करनी चाहिए। साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह क्रिया प्रतिदिन आवश्यक रूप से करणीय है, किन्तु यदि श्रावक-श्राविका कारणवशात् प्रतिदिन यह क्रिया दोनों समय न कर सके, तो उसे यह क्रिया पक्ष में करनी चाहिए। पक्ष में भी नहीं कर सके, तो चातुर्मास में करनी चाहिए और चातुर्मास में भी कर पाना संम्भव न हो, तो संवत्सर में तो अवश्यमेव यह विधि श्रावक-श्राविकाओं को करनी ही चाहिए। श्रावक-श्राविकाओं हेतु इस प्रकार की छूट (अपवादमार्ग) तो पूर्व में कहा गया है, वही है। दिगम्बर-परम्परा में साधु एवं श्रावकों के लिए भी यह विधि प्रतिदिन दोनों समय करने का विधान है, किन्तु वर्तमान में दिगम्बर श्रावक-श्राविकाओं में प्रायः यह विधि प्रचलन में नहीं है।
यह क्रिया साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविकाओं को स्वयं करनी होती है। यद्यपि यह विधि करते समय बीच-बीच में गरु या आचार्य से आज्ञा लेनी होती है, किन्तु मूलतः यह विधि कर्ता को स्वयं ही करनी होती है। दिगम्बर-परम्परा में भी यह क्रिया कर्ता को स्वयं को करनी होती है, क्योंकि ये सब क्रियाएँ आत्मसाधना हेतु की जाती है और आत्मसाधना स्वयं को ही करना होती है।
" विशेषावश्यकभाष्य (भाग-१), अनु.- शाहचुनीलाल हकमचन्द, सू.-९७५, भंद्रकर प्रकाशन, ४६/१, महालक्ष्मी सोसायटी, अहमदाबाद, तृतीय संस्करण : वि.सं.-२०५३.
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