Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 364
________________ 360 साध्वी मोक्षरत्ना श्री इसकी महत्ता सिद्ध होती है। जिस प्रकार बाढ़ से न केवल तालाब को ही नुकसान होता है, वरन् समूचा जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार प्रायश्चित्त से रहित दुर्गुणी व्यक्ति समाज में असंतोष एवं अशान्ति के वातावरण का सर्जन कर देता है। अतः समाज की सुव्यवस्था हेतु भी प्रायश्चित्त-विधि आवश्यक है। आवश्यक विधि आवश्यक विधि का स्वरूप : ७४८ _७४६ अवश्य करणीय सामायिक आदि षट् क्रिया अनुष्ठान को आवश्यक कहते है। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इन तीनों का प्रसाधक है और प्रतिनियतकाल में अनुष्ठेय योग परम्परा का आसेवन है, वह आवश्यक है। मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना से प्रारम्भ कर सम्पूर्ण दिन-रात में करणीय क्रमिक सामाचारी का आचरण आदि समस्त क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं । " जैनेन्द्र शब्दकोश T के अनुसार व्याधि, रोग, अशक्तता, इत्यादि विकार जिसमें हैं, ऐसे व्यक्ति को अवश कहते हैं- ऐसे व्यक्ति को जो क्रियाएँ करना योग्य है, उनको आवश्यक कहते हैं, जैसे- “आशुगच्छतीत्यश्वः ", अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है, उसको अश्व कहते है । व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी, जो शीघ्र दौड़ सकते है, वे सभी अश्व शब्द से संगृहित होते है, परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धि के वश होकर इस अर्थ में घोड़ा ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य है, वह आवश्यक शब्द से कहा जाना चाहिए, जैसे- सोना, करवट बदलना, किसी को बुलाना, इत्यादि कर्त्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं, परन्तु आवश्यक शब्द यहाँ सामायिक षक्रियाओं में ही प्रसिद्ध है। आवश्यक शब्द का प्राकृत रूप आवासक - ऐसा मानकर " आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवासकाः “, अर्थात् जो आत्मा में रत्नत्रय का निवास कराते हैं, उनको आवासक कहते हैं । विशेषावश्यकभाष्य में कहा है- अवश्य करने योग्य वह क्रिया जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के अधीन करे तथा आत्मा को ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रादि गुणों से आवासित, अनुरंजित अथवा आच्छादित करे, वह आवश्यक है । इस प्रकार अवश्य करने योग्य षट् कृत्य को क्रमशः करने की प्रक्रिया को आवश्यक - विधि कहते है । आवश्यक - विधि जैन- परम्परा की सभी -७५० ७४८ भिक्षुआगम विषयकोश, प्र. सम्पादक- आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. १२४ - १२५, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनू, प्रथम संस्करण : १६६६. ४ जैनेन्द्र शब्दकोश (भाग-१), जिनेन्द्रवर्णी, पृ. २७६-२८०, भारतीय ज्ञानपीठ, छठवाँ संस्करणः १६६८. ७५० विशेषावश्यकभाष्य (भाग-१), अनु शाहचुनीलाल हकमचन्द, सू. -८७३, मंद्रकर प्रकाशन, ४६ / १, महालक्ष्मी सोसायटी, अहमदाबाद, तृतीय संस्करण : वि.सं. २०५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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