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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
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प्रायश्चित्त आता है। सम्भवतः वर्धमानसूरि ने इसी बात को प्रकारान्तर से कहने का प्रयत्न किया होगा । वैदिक परम्परा में यद्यपि कुछ दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है, जैसे- घास, ईंधन, वृक्ष, सूखे भोज्य पदार्थ, वस्त्र, खाल एवं मांस की चोरी के प्रायश्चित्त के लिए तीन दिनों का उपवास करना चाहिए " किन्तु वहाँ उपवास का अर्थ अन्न जल के सम्पूर्ण त्याग से नहीं लिया गया है, वरन् थोड़ी मात्रा में हल्का भोजन करने से लिया गया है। इस प्रकार जैन एवं वैदिक - परम्परा की मान्यताओं में काफी अन्तर दिखाई देता है ।
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वर्धमानसूरि ने भावप्रायश्चित्त के साथ ही द्रव्यप्रायश्चित्त की विधि का भी उल्लेख किया है। पाँच प्रकारों (१) स्पर्श (२) कृत्य (३) भोजन ( ४ ) दुर्नय एवं (५) विमिश्रण के दोषों के लगने पर बाह्यशुद्धि हेतु - (१) स्नान के योग्य ( २ ) करनेयोग्य ( ३ ) तपयोग्य (४) दानयोग्य एवं (५) विशोधनयोग्य - इन पाँच प्रायश्चित्तों की विधियों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। दिगम्बर - परम्परा में हमें इस प्रकार की प्रायश्चित्त - विधि का उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक परम्परा में हमें इस प्रकार की प्रायश्चित्त - विधि का उल्लेख अवश्य मिलता है, जैसे- स्नानयोग्य प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में गौतम में कहा गया है कि पतित, चाण्डाल, सूतिका, रजस्वला, शव, स्पृष्टि, तत्स्पृष्टि को छूने पर वस्त्र के साथ स्नान करना चाहिए। इसी प्रकार का उल्लेख हमें याज्ञवल्क्य एवं मनुस्मृति में भी मिलता है । करणीय प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में पाराशर ने कहा है कि चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण की हत्या करने वाले को रामेश्वर जाना चाहिए, इत्यादि । इसी प्रकार तपयोग्य, दानयोग्य एवं विशोधनयोग्य प्रायश्चित्तों का भी वहाँ उल्लेख मिलता है। सम्भवतः आचारदिनकर की स्नानादि के योग्य प्रायश्चित्त की यह विधि वैदिक परम्परा से प्रभावित रही होगी - ऐसा हम माने, तो कोई गलत नहीं होगा ।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि तीनों परम्पराओं में प्रायश्चित्त - विधि का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उनमें परस्पर भिन्नता दृष्टिगत होती है।
७४० छेदशास्त्र, अज्ञातकर्ता, पृ. ६१, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, मुबई - ४ : १६७८.
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धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-तृतीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २, पृ. १०४१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७५.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ. २५८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
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१६२२.
धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-तृतीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- ४, पृ. १०७२ उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७५.
धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-तृतीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२, पृ. १०४२ उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७५.
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