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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
उपसंहार
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धार्मिक जीवन एवं सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था हेतु प्रायश्चित्त-विधि आवश्यक है। इससे न केवल देह की बाह्यशुद्धि ही होती है, वरन् आन्तरिक शुद्धि भी होती है। प्रायश्चित्त करने से जीव पापकर्म की विशुद्धि करता है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला जीवमार्ग ( सम्यक्त्व ) और मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार ( चारित्र) और आचारफल (मुक्ति) की आराधना करता है। प्रायश्चित्त - विधि की आवश्यकता पर जोर देते हुए वर्धमानसूरि ने भी कहा है- अज्ञानतावश नाना प्रकार के भोगों को भोगते हुए या दूसरों के आदेशवश या भयवश या हास्यवश, अथवा नृपादि के बल के कारण, किंवा प्राण की रक्षा के लिए या गुरु तथा संघ की बाधाओं को दूर करने के लिए या परवशता में मिरगी, दुर्भिक्ष्य आदि संकटों में किए गए पापों का क्षय गीतार्थ सद्गुरु के समक्ष उनकी आलोचना करके एवं प्रायश्चित्त - विधि का सम्यक् आचरण करके ही हो सकता है। इस प्रकार आत्मा को विशुद्ध करने हेतु प्रायश्चित्त अत्यन्त अनिवार्य है, क्योंकि प्रायश्चित्त करने से जीव के अध्यवसाय निर्मल हो जाते हैं और वह पुनः पापकर्म करने हेतु प्रेरित नहीं होता है।
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व्यक्ति यदि अपने दृष्कृत्यों की आलोचना नहीं करता है, तो सतत् उसके जीवन में दोषों का आश्रव चालू ही रहता है और एक समय ऐसा आता है कि वह महान् दोषों का घर बन जाता है। जैसा कि पं. आशाधरजी T ने कहा है - " प्रमाद से चारित्र में लगे दोषों की बाढ़ रुक नहीं सकती। एक बार मर्यादा टूटने पर यदि रोका न गया, तो वह मर्यादा फिर रह नहीं सकती, इसलिए प्रायश्चित्त अत्यन्त आवश्यक है। कहा भी गया है- "यह महातपरूपी तालाब गुणरूपी जल से भरा है। इसकी मर्यादारूपी तटबन्दी में थोड़ी सी भी क्षति की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। थोड़ी सी भी उपेक्षा करने से जैसे तालाब का पानी बाहर निकलकर बाढ़ ला देता है, वैसे ही उपेक्षा करने से महातप में भी दोषों की बाढ़ आने का भय रहता है। इस कथन से न केवल व्यक्ति के आन्तरिक शोधन हेतु ही प्रायश्चित्त की उपयोगिता सिद्ध होती है वरन् सामाजिक परिवेश हेतु भी
२७४५ भिक्षुआगम विषयकोश, सम्पादक- आचार्यमहाप्रज्ञ, पृ. ४६५, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू, प्रथम संस्करण
: १६६६.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ. २३६-२४०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम
संस्करण : १६२२.
धर्मामृत अनगार, अनु. - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रीजी, अध्याय- सातवाँ, पृ. ५१२, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण : १६७७.
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