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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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के समय परमात्मा के समक्ष पक्वान्न रखने की विधि प्रचलित है। प्रतिष्ठासारोद्धार के अनुसार उत्तम वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, आभूषण, सातिया, खीर आदि अनेक पकवान दूध, घी, दही, मिश्री, उत्तम फूल, फल, पत्ते, दीप, धूप आदि भोगों की सामग्री सोने के पात्र में रखकर प्रभु की प्रतिमा के समक्ष शिला पर नैवेद्य के रूप में रखने का विधान है। वैदिक-परम्परा में विष्णु आदि देवों के समक्ष नैवेद्य रखने के उल्लेख मिलते हैं, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।
ज्ञातव्य है कि जैन-परम्परा मे बासी आहार परमात्मा के समक्ष नहीं चढ़ाया जाता है और न ही परमात्मा के निमित्त विशेष रूप से आहार ही बनाया जाता है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए स्वयं वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में कहा है ०६ कि भगवान ने अपने आयुष्यकाल में महाव्रत ग्रहण करने के बाद अपने लिए बनाए गए आहार से शरीर का पोषण नहीं किया था, अतः उनके लिए अलग से कोई नैवेद्य नही बनाया जाता है। वैदिक-परम्परा में ऐसी कोई अवधारणा हमें देखने को नहीं मिली। वैदिक-परम्परा में देवों के निमित्त बनाए गए आहार में से बलि देना कल्प्य है। वर्धमानसूरि ने भी इस कथन की पुष्टि करते हुए कहा है- “विष्णु और शिव को गृहस्थ के द्वारा अपने या उनके निमित्त बनाए गए आहार में से बलि देने का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उसके साथ ही देवों के निमित्त बनाए गए आहार में से भी बलि देने का उल्लेख मिलता है। “धर्मशास्त्र के इतिहास के अनुसार भविकजन भले ही उस दिन स्वयं भोजन किसी कारण से न करें, किन्तु उन्हें बलि तो वेनी ही चाहिए। इस प्रकार जैन-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा की मान्यताओं में आंशिक भेद दिखाई देता है।
वैदिक-परम्परा में तो बलि के सम्बन्ध में यहाँ तक कहा गया है"यदि किसी दिन वैश्वदेव (बलि) का भोजन किसी कारण वशात न बन सके, तो गृहस्थ को एक रात और दिन तक उपवास करना चाहिए। जो व्यक्ति बिना वैश्वदेव के स्वयं खा लेता है, वह नरक में जाता है।" जैन-परम्परा में हमें बलि के सम्बन्ध में इस प्रकार की अवधारणा का उल्लेख नहीं मिलता है।
७०६ प्रतिष्ठासारोद्धार, पं. आशाधरजी विरचित, अध्याय-४, पृ.- १००, पं. मनोहरलाल शास्त्री, श्री जैन ग्रन्थ
उद्धारक कार्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६७३. o आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-छत्तीसवाँ, पृ.- २३८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२. "आचारदिनकर, वर्षमानसूरिकृत, उदय-छत्तीसवाँ, पृ.- २३६, निर्णयसागर मुद्रालय बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२. " धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२०, पृ.- ४०५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०.
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