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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
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करता। आचारदिनकर की भाँति ही प्रवचनसारोद्धार में भी हमें आलोचनादाता की गवेषणा के सम्बन्ध में उल्लेख मिलते हैं। वहाँ भी शल्योद्धार के लिए गीतार्थ की खोज उत्कृष्टतः क्षेत्र की अपेक्षा से सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष पर्यन्त कहा गया है। पंचाशकप्रकरण में आलोचना प्रदाता गुरु के लक्षणों का उल्लेख मिलता है। विधिमार्गप्रपा में भी उपर्युक्त विषय की चर्चा नहीं मिलती है। दिगम्बर एवं वैदिक - परम्परा के ग्रन्थों में हमें इस प्रकार का उल्लेख देखने को नहीं मिला।
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प्रायश्चित्त ग्रहण करने योग्य साधक के क्या लक्षण हैं, प्रायश्चित्त नहीं करने के क्या दोष हैं एवं प्रायश्चित्त करने से क्या लाभ होता है ? इसका भी उल्लेख वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में किया है। पंचाशकप्रकरण में भी हमें उपर्युक्त विषयों की चर्चा मिलती है, यथा - आलोचना में अज्ञानता आदि के कारण दुष्कृत्य का सेवन करने पर भी संसार के भय से उस दुष्कृत्य के लिए पश्चाताप होता है, अतः आलोचना सार्थक है । ' पंचाशकप्रकरण में हरिभद्रसूरि ने कहा हैं कि तीर्थंकरों ने संविग्न ( संसार से भयभीत ) माया रहित, विद्वान्, कल्पस्थित, अनाशंसी, प्रज्ञापनीय, श्रद्धालु, आज्ञावान्, दुष्कृत्य, तापी, आलोचना-विधि - समुत्सुक और अभिग्रह आसेवना आदि लक्षणों से युक्त साधु को आलोचना के योग्य माना है इत्यादि, ७२३ किन्तु ये विवेचन आचारदिनकर की अपेक्षा संक्षिप्त है। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में हमें प्रायश्चित्त न करने के दोषों का तो उल्लेख मिलता है, किन्तु वहाँ हमें प्रायश्चित्त ग्रहण करने के योग्य साधक के लक्षण एवं प्रायश्चित्त करने से क्या-क्या लाभ होते है- इसका उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक - परम्परा के ग्रन्थों में हमें इस सम्बन्ध में यत्किंचित् उल्लेख मिलते है। स्मृतियों, पुराणों एवं मध्यकालीन ग्रन्थों के अनुसार प्रायश्चित्त न करने से पापी को पापों का दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है । याज्ञवल्क्य M के अनुसार पापकृत्य के फलस्वरूप सम्यक् प्रायश्चित्त न करने से परम भयावह एवं कष्टकारक
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प्रवचनसारोद्धार, अनु. - हेमप्रभाश्रीजी, द्वार- १२६, पृ. ३६, प्राकृतभारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण
: २०००.
पंचाशकप्रकरण, अनु.- डॉ. दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- पन्द्रहवाँ, पृ. २६२, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १६६७.
२२ पंचाशकप्रकरण, अनु.- डॉ. दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- पन्द्रहवाँ, पृ. २५८, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम
संस्करण : १६६७.
पंचाशकप्रकरण, अनु. डॉ. दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- पन्द्रहवाँ, पृ.
२६१, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम
संस्करण : १६६७.
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* धर्मशास्त्र का इतिहास (तृतीय भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय - ६, पृ. १०६७ उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७५.
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