________________
वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
351
ग्रन्थों को आधार माना गया है- (१) लघुजीतकल्प एवं (२) श्राद्धजीतकल्प। लघुजीतकल्प मुनियों और श्रावकों-दोनों के ही प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विचार करता है, जबकि श्राद्धजीतकल्प में मात्र श्रावकों के अणुव्रतों आदि के अतिचारों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वर्धमानसूरि ने प्रायश्चित्त-विधि की विवेचना करते हुए आचारदिनकर में जीतकल्पभाष्य, लघुजीतकल्प, यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प आदि ग्रन्थों को पूर्णतया उद्धृत कर दिया है। इस कारण से प्रायश्चित्त सम्बन्धी यह सैंतीसवाँ उदय अति विस्तृत हो गया है। सम्पूर्ण विषय का विस्तारपूर्वक समावेश करना इस शोध ग्रन्थ में समुचित नहीं था, क्योंकि जैनधर्म के प्रायश्चित्तविधान को लेकर एक स्वतंत्र शोध प्रबन्ध लिखा जा सकता है, इतनी सामग्री आचारदिनकर में है। अतः यहाँ हमें विवशता में ही प्रायश्चित्त-विधि का संक्षेप में उल्लेख करना पड़ रहा है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सर्वप्रथम तो गृहस्थ और मुनियों के अपराधों की संख्या ही हजारों में हो सकती है, किन्तु मूलग्रन्थ में भी ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार- इन पाँच प्रकारों के अतिचारों के साथ-साथ मुनि और श्रावक के जो विविध क्रिया-कलाप हैं, उनसे सम्बन्धित अपराधों की एवं उनके प्रायश्चित्तों की चर्चा की गई है। जिन्हें इस सम्बन्ध में गहराई से जानने की रूचि हो, वे बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि आगमों के साथ-साथ मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के तृतीय भाग के सैंतीस उदय को देखने की कृपा करें।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में छः छेदसूत्र माने गये है यथा- (१) दशाश्रुतस्कन्ध, (२) बृहत्कल्प, (३) व्यवहार, (४) निशीथ, (५) महानिशीथ तथा (६) जीतकल्पा इनकी नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि में भी प्रायश्चित्त सम्बन्धी विषय चर्चित है। तुलनात्मक विवेचन
किन-किन पापों का नाश प्रायश्चित्त से होता है, प्रायश्चित्त-विधि हेतु गुरु कैसे होने चाहिए, आदि उल्लेख करते हुए वर्धमानसरि ने पापरुपी शल्य-उद्धरण, अर्थात् प्रायश्चित्त के निमित्त से गीतार्थ की गवेषणा हेतु क्षेत्र एवं काल की उत्कृष्ट मर्यादा का उल्लेख किया है। कदाच् प्रायश्चित्त हेतु जीवनपर्यन्त योग्य गुरु की खोज में लगा मुनि सामान्य मुनि की सेवा करते हुए यदि कालधर्म को प्राप्त कर लेता है, तो भी उसे आलोचना का फल प्राप्त होता है, क्योंकि यदि जीवन रहता, तो गीतार्थ गुरु का योग होने पर आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org