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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
श्रावक को आलोचना एवं प्रतिक्रमण के माध्यम से प्रतिदिन प्रायश्चित्त करने का निर्देश दिया गया है। पंचाशकप्रकरण में भी आचार्य हरिभद्र ने कहा है७१६ जिनेन्द्रदेव ने आलोचना का काल पक्ष, चातुर्मास आदि कहा है। पूर्वाचार्य भद्रबाहु आदि ने भी इसे इसी प्रकार कहा है। सामान्य आलोचना तो प्रतिक्रमण के रूप में सुबह-शाम की जाती है। पक्षादि काल प्रायः विशेष आलोचना का है। कोई विशिष्ट अपराध हुआ हो, तो उसकी समय विशेष में आलोचना करें। बीमारी से उठा हो, लम्बा विहार किया हो, आदि कारणों से पक्षादि में भी आलोचना की जाती है। वैदिक - परम्परा में प्रतिदिन आलोचना करने का विधान हमें देखने को नही मिला। वहाँ पर सामान्यतः पाप लगने पर ही प्रायश्चित्त करने के उल्लेख मिलते हैं।
प्रायश्चित्त-विधि में मुख्य रूप से प्रायश्चित्त- प्रदाता गुरु ही होते हैं। यद्यपि प्रायश्चित्त का ग्रहण साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका द्वारा किया जाता है, किन्तु उसकी ये सम्पूर्ण प्रक्रिया निर्ग्रन्थ गुरु द्वारा ही करवाई जाती है। वैदिक-परम्परा में प्रायश्चित्त किनके द्वारा प्रदान किया जाता है, इसका हमें उल्लेख नहीं मिलता है। उसमें परम्परागत रूप से तो किसी ब्राह्मण पण्डित से ही प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि अंकित की है :
प्रायश्चित्त-विधि
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आचारदिनकर में प्रायश्चित्त-विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम यह बताया गया है कि प्रमाद के वशीभूत होकर या अज्ञानदशा में किए गए पापकर्मों की विशुद्धि प्रायश्चित्त द्वारा होती है, किन्तु यदि तीव्र कषायों से प्रेरित होकर कोई पापकर्म किया जाता है, तो उसका फल भोगना ही होता है। पाप प्रवृत्तियों के कर्त्ता की चैतसिक स्थितियों के आधार पर अनेक स्तर होते है। कौनसा पापकर्म किस प्रकार के मनोभावों के आधार पर किया गया है, यह तो केवल ज्ञानी ही जान सकता है; फिर भी देश, काल, स्थिति और व्यक्ति की प्रकृति के आधार पर गीतार्थ मुनि द्वारा किंचित् रूप से किसी कार्य के प्रायश्चित्त के स्वरूप को बताया जा सकता है, इसलिए वर्धमानसूरि का कथन है कि प्रायश्चित्त करने के इच्छुक मुनि को सर्वप्रथम दूर-दूर के क्षेत्रों में गीतार्थ मुनि की गवेषणा करनी चाहिए । फिर उन्होंने प्रायश्चित्त - विधि के सन्दर्भ में प्रायश्चित्त देने वाले और प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले के लक्षणों की विवेचना की है । तदनन्तर प्रायश्चित्त ग्रहण करने
७६ पंचाशक प्रकरण, अनु. डॉ. दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- पन्द्रहवाँ, पृ. २६०, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १६६७.
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