Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 358
________________ 354 साध्वी मोक्षरला श्री में कौन-कौन सा प्रायश्चित्त देना चाहिए? इसका विस्तृत उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी प्रायश्चित्त के दस प्रकारों का उल्लेख मिलता है, किन्तु इन प्रकारों में आंशिक भेद दिखाई देता है। दिगम्बर-परम्परा में मूलयोग्य प्रायश्चित्त तक के प्रकारों का तो यथावत् उल्लेख मिलता है, किन्तु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त को परिहारविशुद्धि-प्रायश्चित्त के रूप में विवेचित करके पारांचिक-प्रायश्चित्त को इसी में समाहित कर लिया गया है और उसकी जगह उसमें श्रद्धान” नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख किया गया है। अन्तिम इन दो प्रकारों की अवधारणा के सम्बन्ध में भी इन दोनों परम्पराओं में कुछ मतभेद दिखाई देता है। स्थानाभाव के कारण हम उनका उल्लेख यहाँ नहीं कर रहें है। दिगम्बर-परम्परा में भी प्रायश्चित्तों के दस प्रकारों के साथ ही हमें यह भी उल्लेख मिलता है कि किस दोष के लगने पर कौनसा प्रायश्चित्त करना चाहिए, जैसेआचार्य से पूछे बिना आतापना आदि करने पर, दूसरे के परोक्ष में उसके पुस्तक पीछी आदि उपकरण ले लेने पर, प्रमाद से आचार्य आदि का कहा न करने पर, संघ के स्वामी से पूछे बिना किसी काम से कहीं जाकर लौट आने पर, दूसरे संघ से पूछे बिना अपने संघ में जाने पर, देश और काल के नियम से अवश्य कर्तव्य विशेष व्रत का धर्मकथा आदि के व्यासंग से भूल जाने पर, किन्तु पुनः उसको कर लेने पर, इसी प्रकार के अन्य भी अपराधों में आलोचनामात्र ही प्रायश्चित्त है।" इस प्रकार धर्मामृत अनगार में प्रारम्भ के छः प्रकार के प्रायश्चित्त के दोषों का एक साथ उल्लेख किया गया है, संग्रह ग्रन्थ के छेदपिण्ड २६ में भी हमें ठीक इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः पं. आशाधरजी ने धर्मामृत अनगार में इस प्रकरण को वहीं से उद्धृत किया होगा, किन्तु आचारदिनकर की अपेक्षा यह विवरण बहुत ही संक्षिप्त है। आचारदिनकर में इन छहों प्रायश्चित्तों का विस्तृत वर्णन है। इन प्रायश्चित्तों में भी तंपरूप प्रायश्चित्त का विवेचन तो विशेष रूप से किया गया है। इस प्रायश्चित्त में उन्होंने चौदह प्रकार के तपों के सांकेतिक नामों के साथ-साथ दसविध प्रत्याख्यानों की नवकारमंत्र के साथ परस्पर संकलना भी की है।३० इसके साथ ही गुरुव्रत एवं लघुव्रत सम्बन्धी विधि-निषेधों का भी उल्लेख किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में हमें इन बातों की चर्चा नहीं मिलती है। ® धर्मामृत अनगार, अनु.-पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रीजी, अध्याय-सातवाँ, पृ.- ५१३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण : १६७७. ७२९ धर्मामृत अनगार, अनु.-पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रीजी, अध्याय-सातवाँ, पृ.- ५१६, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण : १६७७. ७२६ छेदपिण्ड, इन्द्रनन्दियोगिन्द्र विरचित, पृ.-३८, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, मुबई नं.-४, १९७८. " आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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