________________
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
निर्मित आहार तथा कांजी को छोड़कर शेष तत्काल निर्मित भोज्य-सामग्री के अग्रपिण्ड को पवित्र पात्र में रखकर उसी दिन जिन प्रतिमा के समक्ष चढ़ाए तथा हाथ जोड़कर परमेष्ठीमंत्र एवं बलि (नैवेद्य ) मंत्र बोलें- यह जिनबिम्ब को दी जाने वाली बलि की विधि है।
344
तदनन्तर यह बताया गया है कि अन्य देवी-देवताओं को किस प्रकार से बलि दें, जैसे विष्णु और शिव को गृहस्थ के द्वारा अपने या उनके निमित्त बनाए गए आहार में से बलि देना कल्पता है। पितरों को बगीचे के कन्दों एवं फलों से संतर्पित करें तथा उनके मनोवांछित भोजन का स्वगुरु या विप्रों को दान करें। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि अपनी-अपनी आम्नाय विशेष के अनुसार देवी की पूजा की जाती है, उसमें परिकर प्रतिष्ठा विधि की भाँति ही बलि दें। देवी के पूजन में नाना प्रकार के पकवानों, करम्भ एवं सप्त धान्य के बकुलों की बलि दें। गणपति को ताजे मोदकों से बलि दें, इत्यादि । इसके साथ ही नंद्यावर्त्तपूजन में दी जाने वाली बलि का भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। तदनन्तर शाकिनी, भूत, वेताल आदि को तथा निधि देवता को किस प्रकार से बलि प्रदान करें, इसका उल्लेख किया गया है । तदनन्तर यह बताया गया हैं कि विद्वज्जनों को जिनेश्वर शिव एवं विष्णु को छोड़कर प्रायः सभी देवताओं की पूजा उनके वर्णानुसार गन्ध एवं पुष्पों से करनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के तृतीय भाग के छत्तीसवें उदय को देखा जा सकता है।
तुलनात्मक अध्ययन
वर्धमानसूरि ने इस प्रकरण में सर्वप्रथम यह चर्चा की है कि देवताओं को किन वस्तुओं की बलि दी जानी चाहिए। आचारदिनकर के अनुसार देवताओं को नाना प्रकार के खाद्य, पेय, चूष्य एवं लेहूय पदार्थ- जो अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम- इन चार प्रकार के आहारों में समाविष्ट हैं, की बलि दी जानी चाहिए, अर्थात् ये वस्तुएँ देवता को अर्पित करनी चाहिए। देवता विशेष की वृत्ति या रूचि के अनुसार बलि के पदार्थों में भी भेद होता है। गृह - आचार के अनुसार जो भी भोज्य पदार्थ बनाए गए हैं, उनमें से तेल से निर्मित आहार तथा कांजी को छोड़कर शेष तत्काल निर्मित पदार्थ अग्रपिण्ड के रूप में पात्र में रखकर उसी दिन जिनप्रतिमा के समक्ष चढ़ाना चाहिए। दिगम्बर- परम्परा में भी प्रतिष्ठा विधि आदि
७०७ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-छत्तीसवाँ, पृ. २३८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६२२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org