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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
बलि-विधान-विधि बलि-विधान का स्वरूप
बलि विधान का स्वरूप जानने से पहले यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि बलि शब्द यहाँ किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वैसे तो बलि शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा- आहुति, भेंट, चढ़ावा, दैनिक आहार में से कुछ अंश का सब जीवों को उपहार देना, पूजा, आराधना, देवता को नैवेद्य अर्पण करना, इत्यादि। प्रस्तुत प्रसंग में बलि शब्द का आशय देवताओं को संतुष्ट करने हेतु उन्हें नैवेद्य अर्पित करना है। आचारदिनकर में बलि शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि देवताओं के संतर्पण के लिए उन्हें जो नैवेद्य (भोज्य पदार्थ) अर्पित किया जाता है, उसे बलि कहते है।०२ दिगम्बर-परम्परा में बलि शब्द का तात्पर्य पूजा से लिया गया है।०४ यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में भी अरिहंत परमात्मा एवं प्रतिष्ठा
आदि कार्यों में देवी-देवताओं के समक्ष नैवेद्य चढ़ाया जाता है, किन्तु वहाँ इस क्रिया के लिए बलि शब्द व्यवहृत नहीं हुआ है। वहाँ इसके लिए नैवेद्य शब्द ही प्रयुज्य हुआ है। वैदिक-परम्परा में बलि शब्द का अर्थ नैवेद्य की वस्तु है। प्राचीनकाल में राजा द्वारा नियमित रूप से उत्पादन का एक भाग लिया जाता था
और जिसके बदले में प्रजावर्ग सुरक्षा प्राप्त करता था, उसे भी बलि कहा जाता था। इसी प्रकार देवों द्वारा किए गए महान् अनुग्रह का देय 'कर' समझकर उन्हें बलि प्रदान की जाती थी। देवताओं को संतुष्ट करने हेतु वह बलि किस प्रकार से दी जाए- इस विषय का इस प्रकरण में प्रतिपादन किया गया है। वैदिक-परम्परा में देवताओं को नैवेद्य अर्पित करने के सन्दर्भ में 'वैश्वदेव' शब्द का भी प्रयोग हुआ, जो प्रायः बलि का ही एक रूप है।
बलि-विधान करने का मुख्य प्रयोजन देवताओं को नैवेद्य अर्पित करके उन्हें संतुष्ट करना है। इस विधान को किए जाने के पीछे क्या प्रयोजन है? इसका स्पष्टीकरण स्वयं वर्धमानसरि ने भी आचारदिनकर में किया है। उनके अनुसार ०५ मुक्ति को अप्राप्त देवों को संतुष्ट करने के लिए तथा मंगल के हेतु बलिकर्म-विधान किया जाता है। इस कथन से मन में यह संशय हो सकता है कि अरिहंत परमात्मा तो मुक्त देव हैं, फिर उनको क्यों बलि (नैवेद्य) प्रदान की जाती
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संस्कृत हिन्दीकोश, वामनशिवराम आप्टे, पृ.- ७०६, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, १६६६.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- छत्तीसवाँ, पृ.- २३८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ७०० परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेवविरचित, सूत्र-२/१३६, पृ.-१७६, मनुभाई भ. मोदी, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, बोरिया
(गुजरात), तृतीय संस्करण : १६६२. ७०५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.- ३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२.
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