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साध्वी मोक्षरला श्री
बनाकर शनि की, नैऋत्य में शूर्पाकार बनाकर राहु की एवं वायव्य कोण में ध्वजाकार बनाकर केतु की स्थापना करनी चाहिए। तत्पश्चात् उनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिए। सूर्य आदि नवग्रहों की शान्ति के लिए किस चीज से हवन करें, हवन में किन वृक्षों की समिधाओं का उपयोग करें तथा किस वस्तु का दान देंइसका भी इसमें वर्णन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथों में भी हमें नवग्रह-शांतिविधान देखने को मिलता है, किन्तु इसकी विधि आचारदिनकर में वर्णित विधि से कुछ भिन्न है। जैन-संस्कार विधि के अनुसार सर्वप्रथम सर्वग्रहों की शान्ति करने हेतु चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्थापना की जाती है, तत्पश्चात् मंत्रपूर्वक उनकी अष्टप्रकारी, जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल एवं अर्घ्यपूजा की जाती है। इसके बाद उसमें नवग्रहों की शान्ति के लिए नवग्रहों से सम्बन्धित तीर्थंकरों की स्थापना कर अष्टप्रकारी पूजा करने की विधि बताई गई है, उसमें सूर्यग्रह की शान्ति के लिए पद्मप्रभु की, चंद्रग्रह की शान्ति के लिए चंद्रप्रभु की, मंगलग्रह की शान्ति के लिए वासुपूज्य की, बुधग्रह की शान्ति के लिए विमलनाथ आदि आठ जिन की, गुरुग्रह की शान्ति के लिए ऋषभदेव आदि आठ जिन की, शुक्रग्रह की शान्ति के लिए नेमिनाथ एवं केतु की शान्ति के लिए मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ की स्थापना करके उनकी अष्टप्रकारी पूजा करने का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही वहाँ नवग्रह की शान्ति हेतु मंत्रजाप का भी उल्लेख मिलता है। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में भी नवग्रहों की शान्ति के विधान का उल्लेख मिलता है। वैदिक-परम्परा में भी आचारदिनकर की भाँति ही नवग्रहों की स्थापना की जाती है तथा उनसे सम्बन्धित आकृति बनाई जाती है। नवग्रहों की शान्ति हेतु सर्वग्रहों हवन के लिए सामान्य रूप से पीपल, बरगद एवं प्लक्ष की समिधाओं का उल्लेख न करते हुए वहाँ मात्र प्रत्येक ग्रह हेतु अलग-अलग समिधाओं का ही उल्लेख किया गया है। याज्ञवल्क्य के अनुसार सर्य से लेकर केतु तक के लिए हवन की समिधा क्रमशः अर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, शमी, दुर्वा, एवं कुश की होनी चाहिए। याज्ञवल्क्य द्वारा उल्लेखित यह सूची आचारदिनकर में वर्णित सूची के सदृश ही है। वैदिक-परम्परा में आचारदिनकर की भाँति प्रत्येक ग्रह के हवन हेतु पृथक्-पृथक् सामग्रियों का उल्लेख नहीं मिलता है। हाँ, नवग्रह की शान्ति हेतु किन-किन वस्तुओं का दान
६८८ जैनसंस्कार विधि, पं. नाथूलाल जैन शास्त्री अध्याय-८, पृ.- ६३-६५ श्री वीरनिर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन, समिति,
गोम्मटगिरी, इन्दौर, पंचम आवृत्ति १६९८. ६ देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २१, पृ.- ३५४, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. १६० देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २१, पृ.- ३५५, उत्तरप्रदेश
हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३.
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