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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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__आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने लोकप्रचलित स्नानादि द्वारा की जाने वाली नक्षत्र शान्ति की विधि का भी उल्लेख किया है, जिसके अन्तर्गत उन्होंने अमुक द्रव्यों से वासित जल से स्नान करने का निर्देश दिया है, जैसे-:५८० अश्विनी नक्षत्र की शान्ति के लिए मदयन्ति, गन्ध, मदनफल, वच एवं मधु से वासित जल से स्नान करना चाहिए। भरणी नक्षत्र की शान्ति के लिए सफेद सरसों, चीड़ का वृक्ष एव वच से वासित जल से स्नान करना चाहिए, कृतिका नक्षत्र की शान्ति के लिए बरगद, सिरस एवं पीपल के पत्रों तथा गन्ध से वासित जल से स्नान करना चाहिए.........इत्यादि। इस प्रकार उन्होंने २७ नक्षत्रों की शान्ति के लिए अमुक वस्तुओं से वासित जल से स्नान करने की विधि बताई है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें नक्षत्र की शान्ति करने हेतु इस प्रकार की स्नानविधि का उल्लेख नहीं मिलता। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में हमें नक्षत्रों की शान्ति हेतु उपर्युक्त स्नानविधि का उल्लेख मिलता है। योगयात्रा एवं हेमाद्रि ने अश्विनी से रेवती तक के नक्षत्रों एवं उनके देवताओं की पूजा तथा धार्मिक स्नानों का तथा तज्जनित कतिपय लाभों का उल्लेख किया है। आथर्वण परिशिष्ट में८६ भी कृतिका से भरणी तक के नक्षत्रों में स्नान का विधान पाया जाता है। इस प्रकार वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में हमें नक्षत्रों की शान्ति हेतु धार्मिक स्नानों का विधान मिलता है।
नक्षत्रों की शान्ति के पश्चात् वर्धमानसूरि ने ग्रहशान्ति की विधि का उल्लेख किया है। ६८७ इसके लिए सर्वप्रथम विधिवत् पूजित तीर्थंकर की प्रतिमा के आगे गोबर से लिप्त शुद्ध भूमि पर चन्दन से लिप्त श्रीखण्ड (चन्दन) या श्रीपर्णी के पीठ पर स्व-स्व वर्णानुसार ग्रहों को स्थापित करना चाहिए। इन नवग्रहों की स्थापना किस विधि से करें? इसका भी वहाँ विस्तृत विवेचन किया गया है, यथाचावल से मध्य में गोल आकृति बनाकर सूर्य की, आग्नेय कोण में चतुष्काकार बनाकर चन्द्र की, दक्षिण दिशा में त्रिकोणाकार बनाकर मंगल की, ईशान कोण में बाण के सदृश आकृति बनाकर बुध की, उत्तर दिशा में आयताकार बनाकर गुरु की, पूर्व दिशा में पंचकोण आकृति बनाकर शुक्र की, पश्चिम दिशा में धनुषाकार
६" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- चौंतीसवाँ, पृ.- २२८-२२६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम
संस्करण १६२२. ६८५ देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२१, पृ.- ३६४, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. ६८६ देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२१, पृ.- ३६४, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. ६८७ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- चौंतीसवाँ, पृ.- २३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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