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साध्वी मोक्षरला श्री
महिमावान् धर्म को स्थापित करते हैं तथा आठ पत्रों पर जयादि आठ देवियों, दस दिशाओं में दिक्पालों को तथा सोमद्वारपाल के ऊपर के भाग में सूर्यादि नौ ग्रह को स्थापित करते हैं, इत्यादि। इस प्रकार शांतिमंडल की स्थापना की जाती है। तत्पश्चात् उनकी पूजा की जाती है, किन्तु आचारदिनकर की भाँति हमें वहाँ जिनप्रतिमा के स्थापन, बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक परमात्मा की स्नात्रपूजा आदि करने का उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में भी हमें इस प्रकार के उल्लेख देखने को नहीं मिलें।
शान्तिककर्म-विधि बताने के पश्चात ग्रन्थकार ने नक्षत्र शान्ति की विधि बताई है। इसमें २७ नक्षत्रों की विधिपूर्वक शान्ति करने का निर्देश देते हुए प्रत्येक नक्षत्र की शान्ति की विधि प्रज्ञप्त की है, जैसे- अश्विनी नक्षत्र की शान्ति के लिए अश्विनीकुमार की दो मूर्ति स्थापित करके उनकी विधिवत पूजा करें तथा घी, मधु एवं गुग्गुल सहित सर्वौषधि से आहुति दें। नक्षत्र-शान्ति की विधि बताते हुए वर्धमानसूरि ने मूल एवं आश्लेषा नक्षत्र की शान्तिक का विशेष रूप से वर्णन किया है। इसके साथ ही मूल नक्षत्र में यदि बालक का जन्म हो, तो उसका परिजन धन आदि पर क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, इसका भी उसमें उल्लेख किया गया है। तीन पुत्रों के पश्चात् कन्या हो, तीन कन्याओं के पश्चात् पुत्र हो, जुडवाँ कन्या हो या हीनाधिक अंगोपांग वाले शिशु का जन्म होने पर भी वर्धमानसूरि ने मूलस्नान करने के लिए कहा है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें प्रायः इस प्रकार का उल्लेख देखने को नही मिला, किन्त उसमें शान्तिकर्म की विधि प्रचलित है। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें नक्षत्र-शान्ति के विधान मिलते है। वहाँ भी मूल और आश्लेषा नक्षत्र में बालक का जन्म होने पर नक्षत्र-शान्ति का विधान बताया गया है। वैदिक-परम्परा के मदनरत्न८२ ग्रन्थ में नक्षत्र-शान्ति का विस्तृत वर्णन मिलता है, किन्तु यह प्रति अप्राप्त होने के कारण इस विषय में ज्यादा कुछ कह पाना संभव नहीं हैं, फिर भी धर्मशास्त्र के इतिहास में वर्णित इस ग्रन्थ की विषयवस्तु से इतना तो स्पष्ट है कि इसमें नक्षत्रों की शान्ति, की विधि दी गई है। वर्तमान में भी बालक यदि मूल या आश्लेषा नक्षत्र में जन्मता है, तो उससे सम्बन्धित विधि-विधान किए जाने का रिवाज है।
६.' आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- चौंतीसवाँ, पृ.- २२५-२२६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम
संस्करण १६२२. ६८२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- चौंतीसवाँ, पृ.- २२०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२. ६८२ देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-२०, पृ.- ३४७-४८, उत्तर
प्रदेश,हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३.
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