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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
इसका उल्लेख किया है और यह बताया गया है, कि शुद्ध भूमि से प्राप्त पत्थर, धातु या काष्ठ की प्रतिमा बनानी चाहिए। ज्ञातव्य है कि यहाँ मिट्टी एवं गोबर से भी लेप्य प्रतिमा बनाने का उल्लेख हुआ है।
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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधान में सर्वप्रथम क्षेत्रशुद्धि का विचार किया गया है और यह बताया गया है कि आवश्यकता के अनुरूप सौ धनुष, पचास धनुष या पच्चीस धनुष या सौ हाथ क्षेत्र की शुद्धि करके उसे गौमूत्र एवं गोबर आदि से लिप्त करें। उसके पश्चात् राजा को उपहार देकर अमारी अर्थात् हिंसा - निषेध की घोषणा कराएं तथा उनसे प्रतिष्ठा की अनुज्ञा प्राप्त करें। इसी अवसर पर मूर्ति या चैत्य निर्माता को वस्त्र, मुद्रिका आदि से सम्मानित करें और पचास योजन की परिधि में रहे हुए चतुर्विधसंघ को आमन्त्रित करें।
प्रतिष्ठा-विधि के प्रांरभ में दिक्पालों की पूजा की जाती है। इस पूजा हेतु जल के कलश और वेदिका की रचना की जाती है और सभी दिशाओं में अखण्डित पात्रों में नाना प्रकार के पकवान रखे जाते हैं एवं चारों दिशाओं को धूप से सुवासित किया जाता है। ये पकवान किस प्रकार बनाए जाएं, उन्हें कौन बनाएं, सूखे एवं गीले- किस प्रकार के फल रखे जाएं? इसकी विस्तृत चर्चा मूलग्रन्थ में की गई है। इसी अवसर पर अंजनशलाका हेतु नेत्रांजन बनाने की विधि का उल्लेख हुआ है। तदनन्तर पूर्व स्थापित बिम्ब की स्नात्र विधि से पूजा एवं आरती की जाती है तथा आत्मरक्षा हेतु सकलीकरण किया जाता है । तदनन्तर विभिन्न देवी-देवताओं के निमित्त कायोत्सर्ग और स्तवन का क्रम चलता है और शुचिविद्या का आरोपण किया जाता है। तत्पश्चात् नवीन बिम्ब पर पुष्पांजलि अर्पित करते हैं, रौद्रदृष्टि से तर्जनी मुद्रा बताते हैं और बाएँ हाथ में जल लेकर बिम्ब पर छींटते है। यह क्रिया दुष्ट देवताओं के उपशमन हेतु की जाती है । फिर वज्रमुद्रा, गरुड़मुद्रा आदि मुद्राओं से बिम्ब के सम्पूर्ण शरीर की रक्षा की जाती है और बलि-विधान किया जाता है । तदनन्तर पंचरत्न की पोट्टलिका बिम्ब की अंगुली में बांधी जाती है। उसके बाद हिरण्योदक, रत्नोदक और उदुम्बर वर्ग की छाल आदि सर्वौषधियों से वासित जल से विभिन्न छंदों को बोलते हुए नौ अभिषेक करवाए जाते हैं और फिर आचार्य विभिन्न मुद्राओं से विभिन्न प्रतिष्ठाकर देवताओं का आह्वान करते है । किस जल के द्वारा, किस मंत्र से बिम्ब का अभिषेक किया जाए? इसकी भी विस्तृत चर्चा वर्धमानसूरि ने मूलग्रन्थ में की है। इसी क्रम में बीच-बीच में चन्दनपूजा, पुष्पपूजा, धूपपूजा की जाती है तथा दर्पण में बिम्ब के प्रतिबिम्ब को मंत्र के उच्चारण पूर्वक देखा जाता है । तदनन्तर एक सौ आठ शुद्ध जल के कलशों से बिम्ब का अभिषेक किया जाता है और कंकण - बंधन की क्रिया की जाती है।
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