Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 335
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन ६७६ -६७७ चाहिए।" दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में हमें यह उल्लेख तो नहीं मिलता है कि शान्तिक-विधान कब किया जाना चाहिए, किन्तु सामान्यतया वहाँ भी मांगलिक कार्यों के प्रारम्भ में यह विधान किया जाता है। प्रतिष्ठा सारोद्धार में अग्रिम विघ्नों की अनुत्पत्ति एवं पूर्व विघ्नों की शांति के लिए यह विधान करने का उल्लेख मिलता है।' वैदिक-परम्परा में अनेक प्रकार की शान्तियों का उल्लेख मिलता है- जो उनसे सम्बन्धित कार्यों से पूर्व की जाती थी। धर्मशास्त्र के इतिहास के अनुसार जब राजा विजयी होना चाहता है या जब उस पर आक्रमण होता है, या जब उसे भय होता है कि उस पर माया की गई है, या जब वह शत्रुओं का नाश करना चाहता है या जब उस पर महाभय आ जाता है, तब उसे अभयशान्ति करनी चाहिए ।" इसी प्रकार मत्स्यपुराण में वर्णित अठारह प्रकार की शान्तियाँ कब या किस समय की जानी चाहिए, उसके भी उल्लेख हमें वहाँ मिलते हैं। उनका अवलोकन करने से हमें ज्ञात होता है कि सामान्यतया वैदिक-परम्परा में भी उपद्रवों की शान्ति हेतु एवं मांगलिक कार्यों के प्रारम्भ में यह विधान किया जाता था । शान्ति - सम्पादन के काल के विषय में सामान्य नियम है कि यह कभी भी अवसर पड़ने पर होता है। यथा स्वप्न में देखे गए शकुनों से निर्देशित दुष्ट फलों के निवारण, ग्रहों के दुष्ट या बुरे फलों, उत्पादों आदि से सुरक्षा पाने आदि के लिए। सूर्य के उत्तरायण, शुक्ल पक्ष आदि के लिए प्रतीक्षा नहीं की जाती है ६७८ इस प्रकार तीनों ही परम्परा में यह विधान मांगलिक कार्यों के पूर्व तथा उपद्रवों के उपस्थित होने पर उनके निवारणार्थ किया जाता था । संस्कार का कर्त्ता : यह विधि-विधान गृहस्थ गुरु ( विधिकारक ) द्वारा करवाया जाता है। आचारदिनकर में भी यह विधि-विधान गृहस्थ गुरु द्वारा ही करवाने का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर - परम्परा में यह संस्कार किसके द्वारा करवाया जाता है, इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता है, फिर भी सामान्यतया वहाँ ये विधान भट्टारकों या जैन ब्राह्मणों के द्वारा करवाए जाते है। वैदिक-परम्परा में यह विधान सामान्यतया कर्मकाण्ड में विशारद ब्राह्मणों द्वारा करवाया जाता है। ६७६ प्रतिष्ठासारोद्धार, पं. आशाधर जी, अध्याय- २, पृ. ३२, पं. मनोहरलाल शास्त्री, श्री जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६७४. ६०० धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २०, पृ. २५१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. ६७८ धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २१, पृ. २५८, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. Jain Education International 331 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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