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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
तो
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यदि जीव अपने अन्तिम क्षणों में भी सम्यक् आराधना करता है, निश्चित रूप से निकट भविष्य में मोक्ष को प्राप्त करता है। जैसा कि संवेगरंगशाला में भी कहा गया है कि पण्डितमरण प्राप्त करके यह जीव उसी भव में, अथवा देवगति का एक भव करके पुनः श्रावककुल में जन्म लेकर शुद्धचारित्र पालकर तीसरे भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, अधिकतम आठवें भव में तो मुक्त हो ही जाता है।
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इस जगत् में चिन्तामणि मणिरत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष द्वारा भी जिसकी प्राप्ति दुःसाध्य है, उसे प्राप्त कराने में पण्डितमरण ही समर्थ है, अतः यह साधना अत्यन्त अनिवार्य है।
वर्धमानसूरि के अनुसार कर्मों के क्षय के लिए तथा शुभध्यान के लिए भी यह संस्कार आवश्यक है, ६३६ क्योंकि अन्तिम आराधना करते समय जीव के परिणाम इतने निर्मल हो जाते हैं जिससे वह नए कर्मों का बंध नहीं कर पाता है । सामान्यतः जीव जब मृत्यु के निकट पहुँचता है, तो उसके मन में अनेक प्रकार के शुभाशुभ संकल्प-विकल्प प्रारम्भ हो जाते हैं और उन शुभाशुभ विचारों में वह कर्मों का बन्ध कर लेता है। अन्तिम समय की आराधना से जीव संकल्प - विकल्प से रहित हो जाता है, क्योंकि आराधना करते समय उसे इतना अवकाश ही नहीं मिलता है कि वह कोई संकल्प - विकल्प कर सके, अतः शुभाशुभ कर्मों के बंध को अटकाने के लिए भी यह संस्कार महत्वपूर्ण है।
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मुनि की मृत्यु के समय नक्षत्रों का विचार करके उनसे सम्बन्धित विधि-विधान करना भी मुनिसंघ के लिए आवश्यक होता है, क्योंकि उसके अभाव में मुनिसंघ पर विपत्ति आ सकती है। अतः किन नक्षत्रों में क्या करना चाहिए, इसका ज्ञान होना भी मुनिजनों के लिए आवश्यक है ।
संक्षेप में कृत कर्मों का क्षय करने के लिए तथा शुभध्यान की प्राप्ति के लिए यह संस्कार आवश्यक ही नहीं, वरन् उपयोगी भी है।
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'संवेगरंगशाला, जिनचन्द्रसूरिकृत, गाथा - ३७१२ - ३७१४, पण्डित बाबूभाई सवचंद ६५५ /अ, मनसुखभाई पोल, कालूपुर, अहमदाबाद, वि. सं. १२५०.
६३५ संवेगरंगशाला, जिनचन्द्रसूरिकृत, गाथा - ३७३६, पण्डित बाबूभाई सवचंद ६५५ / अ, मनसुखभाई पोल, कालूपुर, अहमदाबाद, वि.सं. १२५०.
६३६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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