Book Title: Jain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 321
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 317 तात्पर्य पूज्यता से लिया गया है। जैसा कि वर्धमानसूरि ने स्वयं कहा है,६३७ किसी व्यक्ति और वस्तु को पूज्यता प्रदान करने के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे प्रतिष्ठा-विधि कहते हैं। जैसा मुनि आचार्यपद या अन्य योग्य पद से, ब्राह्मण वेद-संस्कार से, क्षत्रिय राज्य में किसी महत्वपूर्ण पद पर अभिसिक्त होने से, वैश्य श्रेष्ठिपद से, शूद्र राजसम्मान से, एवं शिल्पी शिल्पसम्मान से प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है, उसी प्रकार पाषाण से या अन्य किसी वस्तु से निर्मित जिनेश्वर एवं अन्य देवों की प्रतिमाओं को भी मंत्र-क्रियाओं द्वारा प्रतिष्ठित किया जाता है, अर्थात् उन्हें पूजनीय बनाया जाता है। परमात्मा आदि की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कैसे एवं किन मंत्रों से की जाए? इसी का इस विधि में विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रसंगवश इस अध्ययन में नंद्यावर्त्त महापूजन, बृहत्स्नात्रविधि आदि का वर्णन किया गया है, इसके साथ ही इसमें जिन-प्रतिष्ठा के काम में आने वाले ३६० क्रियाणकों की सूची भी दी गई है। श्वेताम्बर-परम्परा में जिन-प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्राचीन-अर्वाचीन अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, यथा- प्रतिष्ठाकल्प, निर्वाणकलिका, सामाचारी, विधिमार्गप्रपा, कल्याणकलिका, प्रतिष्ठाविधि समुच्चय आदि। इन सभी ग्रन्थों में वर्णित विधि प्रायः समान ही है। यद्यपि आचार्य हरिभद्र के पंचाशक प्रकरण में भी जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा का उल्लेख मिलता है, किन्तु वहाँ मंत्रोच्चार एवं उसके विस्तृत विधि-विधान का उल्लेख नहीं मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में भी जिनबिम्ब आदि की प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ मिलते हैं, यथामाघनन्दीकृत प्रतिष्ठाकल्प, वसुनंदीकृत प्रतिष्ठासार संग्रह, जयसेनाचार्य कृत प्रतिष्ठापाठ, आशाधरकृत प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक आदि। हिन्दू-परम्परा में भी विष्णु, शिव एवं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा की जाती है, उसमें भी प्रतिष्ठामहोदधि, प्रतिष्ठा मयूख, अग्निपुराण, प्रतिष्ठार्णव आदि अनेक ग्रन्थ मिलते वर्धमानसरि के अनुसार ६२८ अचेतन प्रतिमा में मंत्रादि द्वारा देवता का प्रवेश करवाने के लिए प्रतिष्ठा-विधि निष्पन्न की जाती है। प्रतिष्ठा-विधि के दरम्यान जो क्रियाएँ की जाती है, वे सभी किसी प्रयोजन से ही की जाती है। जैसे-६३६ प्रतिष्ठा में वेदी, दीपक, मुद्रा, कल्प्यकर्म आदि से सम्बन्धित जो विधि-विधान किए जाते हैं, वे सब देव गृह एवं देवप्रतिमा आदि की रक्षा के लिए किए जाते है। इसी प्रकार कंकण बंधन की क्रिया भी रक्षा के उद्देश्य से ही की जाती है। तीन सौ साठ क्रियाणकों द्वारा जिनबिम्ब की जो पूजा की जाती है, वह ६३० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- तेंतीसवाँ पृ.-१४१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.- ३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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