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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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की मृत्यु रात्रि में हुई हो, तो अन्य मुनियों को क्या करना चाहिए, मुनि की मृतदेह में यदि किसी व्यंतरदेव का प्रवेश हो जाए, तो क्या करना चाहिए - इसका भी आचारदिनकर में वर्णन किया गया है । ६२ विधिमार्गप्रपा में भी मुनि की परिष्ठापनिका - विधि का उल्लेख मिलता है। विधिमार्गप्रपा में हमें एक विशेष बात देखने को मिली कि कदाचित् मृतदेह में किसी व्यंतरदेव का प्रवेश होने से वह देह उठे, तो मुनि को उस क्षेत्र का त्याग कर देना चाहिए ( अर्थात् वसती में मृतदेह उठे, तो वसती का त्याग कर देना चाहिए ) - इसका विस्तृत उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा में ही देखने को मिला, आचारदिनकर में हमें इस विषय की चर्चा नहीं मिलती है। दिगम्बर - परम्परा में भगवती आराधना और उसकी अपराजिताटीका में भी हमें इस प्रकार की कुछ क्रियाओं का उल्लेख नहीं मिलता है। सामान्यतः जो मुनि मृत्यु को निकट जानकर स्वयं ही किसी निर्जन स्थान पर पादोपगमनमरण को स्वीकार कर लेता है, उनके लिए इन सब क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती । मृतमुनि की देह को वहीं विसर्जित कर निर्यापकमुनि वापस आ जाता है, किन्तु यदि किसी मुनि का वसति में ही देहावसान हो जाए, तो उस समय क्या क्रिया करनी चाहिए, उस अपेक्षा से ही वर्धमानसूरि ने यहाँ परिष्ठापनक्रिया का विवेचन किया है - यह सब विवेचन प्रकारान्तर से मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थ में उपलब्ध हैं।
वर्धमानसूरि के अनुसार मुनि की मृत्यु के समय नक्षत्रों का विचार करते हुए ही मृतदेह का विसर्जन करना चाहिए । विशाखा, रोहिणी, उत्तरात्रय और पुनर्वसु-इन नक्षत्रों में यदि साधु की मृत्यु हुई हो, तो मृत साधु के पास दो कुश के पुतले बनाकर उनके हाथ में लघु रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका रखना चाहिए तथा मृतक साधु के बाएँ हाथ की तरफ मुनि के स्वयं के उपकरणों को एवं इन कुशमय पुतलों को डोरी से बांधना चाहिए। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों से सम्बन्धित विधि-विधानों की भी चर्चा ग्रन्थकार ने विस्तार से की हैं। निशीथचूर्णि, विधिमार्गप्रपा आदि में भी हमें इस प्रकार की चर्चा देखने को मिलती है। दिगम्बर- परम्परा की भगवती आराधना में हमें इस प्रकार का उल्लेख कुछ प्रकारान्तर से देखने को मिलता है।
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६२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ. १३८ - १३६ निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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६. विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण- ३३, पृ. ७८, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. " आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बत्तीसवाँ, पृ. १३८-१३६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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