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साध्वी मोक्षरला श्री
इस प्रकार संसार के परिभ्रमणरूप राग एवं द्वेष की जड़ों को कमजोर करने हेतु भी ऋतुचर्या का बोध आवश्यक है।
अंतिमसंलेखना की विधि अंतिमसंलेखना-विधि का स्वरूप
अंतिमसंलेखना शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- अंतिम और संलेखना। अंतिम शब्द का तात्पर्य है-जीवन के अन्त में, अर्थात् जीवन के अंतिम चरण में, तथा संलेखना शब्द का तात्पर्य है-शरीर और कषाय का कृशीकरण, अर्थात् मुनि अपने अंतिम समय में जिस आराधना से शरीर एवं कषाय का कृशीकरण करता है, उसे अंतिमसंलेखना या मरणांतिक संलेखना कहते हैं। इस प्रकरण में मुनि-आचार सम्बन्धी अंतिमसंलेखना-विधि का वर्णन किया गया है। मुनि को अपने अंतिम क्षणों में किस प्रकार से एवं किन क्रियाओं के द्वारा अपने शरीर एवं कषायों को कृश अर्थात् दुर्बल करना चाहिए, इसका इस विधि में विस्तृत विवेचन है। श्वेताम्बर-परम्परा में अंतिमसंलेखना सम्बन्धी प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। दिगम्बर-परम्परा में भी इस विधि से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों का सर्जन हुआ है। वर्धमानसूरि की भाँति जिनसेनाचार्य ने भी इसे संस्कार के रूप में स्वीकार किया है। १६ दिगम्बर-परम्परा में संलेखना की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि अतिवृद्ध या असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाने पर अथवा अप्रतिकार्य मरणांतिक उपसर्ग आ जाने पर, अथवा दुर्भिक्ष्य आदि की स्थिति में साधक समभावपूर्वक अन्तरंग कषायों का सम्यक् प्रकार से निरसन करते हुए, भोजन आदि का त्याग करके धीरे-धीरे शरीर को कृश करते हुए इस शरीर का त्याग कर देते हैं, इसे ही मरणांतिक संलेखना या समाधिमरण कहते हैं। वैदिक एवं बौद्ध-परम्परा में मृत्युवरण के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें तत्सम्बन्धी विधि-विधान का विस्तृत उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। यद्यपि वैदिक एवं बौद्ध-परम्परा में स्वेच्छा मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन के अनुसार जैन और वैदिक तथा बौद्ध-परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक-परम्परा में जल एवं अग्नि में प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, विष या शस्त्रप्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्यु का वरण मिलता है, वहाँ जैनपरम्परा में
६* भिक्षु आगम विषयकोश (भाग-१), प्रधान सं.-आचार्यमहाप्रजजी, पृ.-६६० जैन विश्वभारती संस्थान, लाइन, प्रथम संस्करणः १६६. आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५५-५६, भारतीय ज्ञानपीठ,
सातवाँ संस्करण २०००. ६ डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, प्रबन्ध सम्पादक- डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय, खण्ड-पंचम, पृ.-४२१, पार्श्वनाथ
विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६६८.
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