________________
वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
125
जन्म-संस्कार१८ की विधि का बहुत सुन्दर विवेचन किया है। श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार गर्भकाल की अवधि पूर्ण होने पर, गर्भ का प्रसव होने के समय किया जाता है।
दिगम्बर-परम्परा में भी इस संस्कार को प्रियोद्भव-संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है। इस परम्परा में भी शिशु का जन्म होने पर यह संस्कार विविध विधि-विधानों के साथ सम्पन्न कराया जाता है।
वैदिक-परम्परा में यह संस्कार जातकर्म के नाम से जाना जाता है। उसमें भी यह संस्कार शिशु का जन्म होने के पश्चात् किया जाता है, परन्तु वैदिक-परम्परा में इस संस्कार में पुत्र के होने पर कुछ विशेष विधि-विधान करने का निर्देश दिया गया है। तैत्तिरीय-संहिता२२० के अनुसार - "जब किसी को पुत्र उत्पन्न हो, तो उसे बारह विभिन्न पात्रों में पकी हुई रोटी (पुरोडाश) की बलि वैश्वानर (अग्नि) को देना चाहिए।" इससे स्पष्ट होता है कि लड़के के जन्म पर वैश्वानरेष्टिकृत्य किया जाता था। इसी प्रकार दूसरे भी अन्य विधि-विधान किए जाते थे।
इस प्रकार तीनों परम्परा यह संस्कार अपनी-अपनी विधि के अनुसार सम्पन्न करवाती है। संस्कार का कर्ता -
श्वेताम्बर-परम्परा में आचारदिनकर के अनुसार यह संस्कार जैन-ब्राह्मण या क्षुल्लक द्वारा करवाए जाते हैं, यद्यपि वर्तमान में ये क्रियाएँ हिन्द-ब्राह्मण ही करवाते हैं। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार को करवाने का अधिकारी कौन है ? इस सम्बन्ध में आदिपुराण में स्पष्ट रूप से कहा गया है- जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गई हैं, जो सफेद वस्त्र पहने हुए है, पवित्र यज्ञोपवीत धारण किए हुए है और जिसका चित्त आकुलता से रहित है, ऐसा द्विज मंत्रों द्वारा समस्त क्रियाएँ करवाए। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार ब्राह्मण द्वारा करवाया जाता है, यद्यपि कहीं-कहीं शिशु के पिता द्वारा भी यह संस्कार करवाने का उल्लेख मिलता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रतिपादित की है
८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम भाग), उदय-तृतीय, पृ.-६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२ २१९ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु. - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२४६, भारतीय ज्ञानपीठ,
सातवाँ संस्करण, २०००. २२० देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१६२, उत्तरप्रदेश, हिन्दी
संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण, १६८०.
Jain Education International.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org