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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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समाप्तिपर्यन्त मौन रहकर ही अध्ययन किया जाता है, जिसे आदिपुराण में मौनाध्ययनवृत्तित्व क्रिया के नाम से उल्लेखित किया गया है।
वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन मन, वचन एवं काया की प्रवृत्तियों का निग्रह करना है।५०० संसार में जीव कर्म का बंध इन तीन योगों के कारण से ही करता है। योगोद्वहन के माध्यम से उन योगों को शुभ कार्यों में लगाया जाता है, जिससे वे कर्मबंध का हेतु न बन सकें। इस संस्कार में कालग्रहण, जप आदि शुभ क्रियाओं से मन का, मौनादि के माध्यम से वचन का एवं नीरस आहार तथा संघट्टा आदि क्रियाओं से काया का निग्रह किया जाता है। इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन मन-वचन एवं काया की प्रवृत्तियों का निग्रह करके जीव को आत्मोन्मुख बनाना है।
श्वेताम्बर-परम्परा के विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों यथा-विधिमार्गप्रपा, सामाचारी, सुबोधासामाचारी आदि में भी योगोद्वहन की विधि का उल्लेख मिलता है। उनमें वर्णित विधि प्रायः आचारदिनकर में वर्णित विधि के सदृश ही है।
चारित्र ग्रहण करने के कितने समय पश्चात मुनि को योगोद्वहन करके सूत्रों का वाचन करना चाहिए? इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने आचारदिनकर ग्रन्थ में कोई निर्देश नहीं दिया है, किन्तु श्वेताम्बर-परम्परा के अन्य ग्रन्थों एवं आगमों में इस विषय की गहराइयों को समझते हुए, इस सम्बन्ध में विशेष जोर दिया गया है। कहा भी गया है
"आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ। इअ सिद्धत रहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ।।"
अर्थात जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे घड़े में डाला गया पानी कच्चे घड़े का नाश करता है, उसी प्रकार अयोग्य को दिया गया सिद्धांत का रहस्य उसकी आत्मा का नाश करता है।०१ अतः आगमग्रन्थों में भी इस विषय पर बल देते हुए निर्देश दिया है कि'०२
तिवास-परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारपकप्पे नाम अज्झयणं उद्दिसित्तए। चउवास-परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ सूयगडे नामं अंगे उद्दिसित्तए। पंचवास-परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ दसा-कप्प ववहारे उद्दिसित्तए। अट्ठवास- परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ ठाण-समवाए
५०० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागार मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
" पंचवस्तु, अनु.-राजशेखरसूरिजी, द्वार-गणानुजाद्वार, पृ.-४४५, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे,द्वितीय संस्करण. १०२ व्यवहारसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र सं.-१०/२२-३६, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, प्रथम संस्करणः १६६२.
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