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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
उल्लेख तो अवश्य मिलते हैं, किन्तु सम्पूर्ण दिवस-रात्रि की चर्या का उल्लेख एक स्थान पर एक ही ग्रन्थ या अध्याय के रूप में नहीं मिलता है, जैसा कि उत्तराध्ययन या आचारदिनकर आदि में है। जैन-परम्परा की भाँति बौद्ध-परम्परा में भी अहोरात्रि की चर्या का कोई क्रमबद्ध वर्णन प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि अध्ययन-अध्यापन तथा ध्यान आदि करने सम्बन्धी आवश्यक कृत्यों का उल्लेख हमें बौद्ध-परम्परा के ग्रन्थों में भी मिलता है, किन्तु इसके लिए दिन तथा रात्रि का कौनसा समय निश्चित था, इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
व्यक्ति जो भी क्रिया करता है, उसके पीछे कुछ न कुछ प्रयोजन होता है, बिना प्रयोजन के कोई भी क्रिया नहीं होती है। यह बात अलग है कि कुछ प्रयोजन मुख्य होते हैं और कुछ प्रयोजन गौण होते हैं। वर्धमानसूरि द्वारा प्रज्ञप्त इस विधि का मुख्य प्रयोजन साधुओं को उनकी दिनचर्या का बोध कराते हुए उन्हें संयममार्ग में स्थिर करना है। मुनि अपनी क्रियाओं को सम्यक् प्रकार से सम्पादित तभी कर पाएगा, जब वह उनके बारे में जान पाए। उसके अभाव में उसकी क्रिया सम्यक् नहीं हो सकती। महर्षियों का कथन है कि मुनि अपनी क्रियाओं को सम्यक् प्रकार से करे तो ही वह अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। क्योंकि मुनि की प्रत्येक क्रिया कर्म निर्जरा का कारण है, किन्तु मुनि उनके प्रति जरा सी भी असावधानी रखें तो वही क्रिया कर्मबंध का कारण बन सकती है। अतः मुनि सावधानी पूर्वक अपनी चर्याओं का पालन कर सके। इस प्रयोजन से ग्रन्थकार ने इस संस्कार का निरूपण किया है।
ग्रन्थकार के अनुसार मुनिजीवन की दिवस-रात्रि सम्बन्धी जो चर्या है, वह जिस दिन से साधक मुनिदीक्षा ग्रहण करता है, उसी दिन से उसकी ये सब क्रियाएँ प्रारम्भ हो जाती है। संक्षेप में अगर हम यह कहें कि यह उसकी दैनिक विधि है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दिगम्बर-परम्परा में भी निर्ग्रन्थ मुनि के दैनिकचर्या का पालन दीक्षा ग्रहण करने के बाद से ही करना होता है। संस्कार-विधि का कर्ता
यह विधि मुनि को स्वयं करना होती है। यह बात भिन्न है कि वह दिवस-रात्रि सम्बन्धी अपनी प्रत्येक क्रिया के लिए गुरु या वरिष्ठतम मुनि से अनुज्ञा प्राप्त करे, किन्तु इन क्रियाओं का आचरण तो स्वयं ही करना होता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि निरूपित की है
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